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________________ २८५ चल रहे हैं। पाँचों शिष्यों ने गुरु को प्रणाम कर, आदेश चाहा। गौतम उन्हें श्रीमण्डप में प्रभु के समक्ष लिवा ले गये । फिर आदेश दिया कि : 'आयुष्यमान् मुमुक्षुओ, श्री भगवान् का वन्दन करो ?' वे पाँचों गरु-आज्ञा पालन को उद्यत हुए, कि हठात् शास्ता महावीर की वर्जना सुनाई पड़ी : 'केवली की आशातना न करो, गौतम। ये पाँचों केवलज्ञानी अर्हन्त हो गये हैं। अर्हन्त, अर्हन्त का वन्दन नहीं करते !' तत्काल गौतम ने अपने अज्ञान का निवेदन कर, अपने पाँचों शिष्यों से क्षमा याचना की। ... गौतम का मन खिन्न हो गया। मेरे मुख से प्रभु की धर्म-प्रज्ञप्ति सुनकर इन पाँचों आत्माओं ने क्षण मात्र में कैवल्य-लाभ कर लिया। पर मैं स्वयम् कोरा ही रह गया। शिष्य गुरु हो गये, गुरु को शिष्य हो जाना पड़ा। उसे शिष्यों के प्रति प्रणत हो जाना पड़ा। गौतम का मन गहरी व्यथा से विजड़ित हो गया। प्रभु के अनन्य प्रिय पात्र और पट्टगणधर हो कर भी, वर्षों प्रभु के साथ तदाकार विहार करते हुए भी, अर्हत् की कैवल्य-कृपा उन्हें प्राप्त न हो सकी ? और इस बीच कई आत्माएँ प्रभु के समीप आकर अर्हन्त पद को प्राप्त हो गयीं। 'क्या मुझे कभी केवलज्ञान प्राप्त न होगा? क्या मुझे इस भव में सिद्धि नहीं मिलेगी?' । ___ गौतम को अचानक याद आया, बहुत पहले उन्हें एक देववाणी सुनाई पड़ी थी। उसमें कहा गया था कि : ‘एक बार अर्हन्त भगवन्त ने अपनी देशना में कहा था कि कोई व्यक्ति यदि अपनी लब्धि के बल अष्टापद पर्वत पर जा कर, वहाँ विराजमान जिनेश्वरों को नमन करे, और वहाँ एक रात्रि वास करे, तो उसे इसी जन्म में सिद्धि प्राप्त हो सकती है।' ___ "त्रिलोक-गुरु महावीर स्वयम्, गौतम के एकमेव श्रीगुरु हैं। उनके होते वह देववाणी, और अष्टापद-यात्रा? ऐसी बात वह प्रभु से कैसे पूछे ? गौतम अन्यमनस्क और उदास हो गये। वे बड़ी उलझन में पड़ गये। श्री भगवन्त ने उनकी पीड़ा को देख लिया। तत्काल आदेश दिया : ___ 'देवानुप्रिय गौतम, अष्टापद पर्वत पर जाओ। वहाँ से पुकार सुनाई पड़ी है। अर्हत् की कैवल्य-ज्योति का उस दुर्गम में संवहन करो !' गौतम की आँखों में परा प्रीति के आँसू झलक आये। मेरे प्रभु कितने सम्वेदी हैं, वे मेरे हर मनोभाव में मेरे साथ हैं। मेरे मन की हर साध बिन कहे ही पूर देते हैं ! Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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