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'देख, देख शालिभद्र, तू लोकान पर बैठा है, और तू लोकतल के अन्तिम वातवलय में खोया जा रहा है। तू इसी क्षण सब से ऊपर है, तू इसी झण सर्व के चरण तले पड़ा है ! ..'
_ 'यह क्या देख रहा हूँ, भन्ते त्रिलोकीनाथ । मैं ऊपर भी नहीं हूँ, नीचे भी नहीं हूँ। आगे भी नहीं हूँ, पीछे भी नहीं हूँ। मैं इसी क्षण अपने स्व-समय में, अपने स्व-द्रव्य में स्वतन्त्र खेल रहा हूँ !'
तेरे चरम अहम् का आवरण छिन्न हो गया। तेरा अन्तिम अहंकार टूट गया। तू अर्हत् का आप्त हुआ, शालिभद्र ! तू स्वयम् का नाथ हो कर, सर्व का नाथ हो गया। तेरी जय हो !'
और वे कितनी सारी ममताली स्त्रियाँ, प्रभु के उस अनंगजयी मुख की मोहिनी में बेसुध हो रहीं। नारी होकर, वे तो जन्मना ही समर्पिताएं थीं। अहंकार वे क्या जानें, मिटने के लिये ही मानो वे जन्मी हैं। प्रभु की तत्व-वाणी वे न समझीं। केवल उस श्रीमुख की मोहिनी से विद्ध होकर, वे उसे समर्पित हो गईं, जो उनके असीम समर्पण को झेलने में एक मात्र समर्थ पुरुष है। उन्हें अपना परम प्रीतम मिल गया। वह, जो एक ही क्षण में शालिभद्र भी है, धन्य भी, महावीर भी है।
यहाँ पुरुष स्त्री के अस्तित्व की शर्त नहीं। स्त्री पुरुष के अस्तित्व की शर्त नहीं। कोई किसी के ऊपर या नीचे नहीं। सब यहाँ समकक्ष हैं, वे परस्पर के पूरक हैं, प्रेरक हैं। परस्पर के कर्ता, धर्ता, हर्ता नहीं। समर्पण के इस राज्य में, स्त्री, पुरुष, शुद्र, दास, सम्पन्न-विपन्न, राजा-प्रजा-कोई किसी के होने की अनिवार्यता नहीं।
तभी सम्मुख प्रस्तुत स्त्रियों को सम्बोधन किया प्रभु ने :
'माँओ, तुम अपने भाव से ही कृतार्थ हो गयीं। तुम्हारा समर्पण ही तुम्हारा मोक्ष हो रहा । तुमने शाश्वत काल में कितने ही गोभद्रों, कितने ही शालिभद्रों और कितने ही धन्यों को स्वयम् जन्म दे कर, जन्म-मरण के पार पहुंचा दिया। मातृजाति के इस ऋण से महावीर कभी उऋण न हो सकेगा !'
.."कितने सारे पुरुष और कितनी सारी स्त्रियाँ, प्रभु के पाद-प्रान्तर में, अपनी ही सत्ता में स्वतंत्र विचरते दिखायी पड़े। कोई किसी का स्वामी नहीं, दास नहीं। कोई किसी के ऊपर नहीं, नीचे नहीं। ___..वे सब किसी अगमगामी महापंथ के विहंगम सहचारी हैं।
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