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है. कह कर धन्य श्रेष्ठी उस अर्द्ध-स्नात, अर्द्ध-वसन अवस्था में ही वैभारगिरि की ओर प्रयाण कर गये। और उनकी तमाम पत्नियां भी अपने मणि-कंकण और रत्न-मुक्ताहार राहगीरों को लुटाती हुई, उनका अनुगमन कर गईं।
"उधर 'इन्द्रनील प्रासाद' में बत्तीसवीं रात का प्रभात हुआ। अन्तिम शैया, और अन्तिम रमणी भी पीछे छूट गयी। शालिभद्र महापन्थ की पुकार पर निकल पड़ा। द्वार पर माँ भद्रा, और बत्तीस अंगनाएँ निरुपाय ताकती रह गयीं। देखते-देखते शालिभद्र दृष्टिपथ से ओझल हो गया।
क्षण मात्र में ही सारी पृथ्वी घूम गयी। उसकी एक और परिक्रमा पूरी हो गयी। उसके चारों ओर सूर्य की एक और प्रदक्षिणा भी पूरी हो गयी। द्वार पर खड़ी स्त्रियाँ भी फिर महल में न लौट सकीं। वे भी अपनी-अपनी अलक्ष्य राह पर निकल पड़ी, उसी एक लक्ष्य पर जा पहुंचने के लिये।
"वैभार गिरि पर श्री भगवान् का समवसरण विराजमान है। श्रीमण्डप में एक ओर खड़ा है धन्य श्रेष्ठी। और जाने कितनी स्त्रियाँ उसके पीछे बड़ी हैं । वे यहाँ मोक्ष लेने नहीं आयीं, अपनी प्रीति को अनन्त करने आयी हैं !
। दूसरी ओर खड़ा है शालिभद्र, ठीक श्री भगवान् के सम्मुख निर्भीक मस्तक उठाये। और उसके पीछे खड़ी हैं भद्रा-माँ, और बत्तीस नवोढ़ाएं। वे एक और ही नवीन परिणय की प्रतीक्षा में हैं। श्री भगवान् चुप हैं। हठात् वह स्तब्धता भंग हुई। शालिभद्र का अन्तिम अहम् तीर की तरह छूट कर मुखर हो उठा :
'देखता हूँ, यहाँ भी मेरी वेदना का उत्तर नहीं है। यहाँ भी तो मेरे ऊपर एक त्रिलोकीनाथ बैठा है। यहां भी तो मेरे ऊपर एक स्वामी है। मैं अर्हत् के राज्य में भी स्वतंत्र नहीं ?'
'अरे अन्त तक अन्य को देख कर ही जियेगा रे शालिभद्र, अपने को नहीं देखेगा? अन्त तक पर को देख कर ही अपना मूल्य आँकेगा ? अपने को देख और जान कि ऊपर है या नीचे है। "देख देख देख...!'
शालिभद्र एकाग्र भगवान् की आँखों में आँखें डाले रहा । और फिर प्रभु का अगाध स्वर सुनाई पड़ा : ___'देख, तू मेरे ऊपर बैठा है, शालिभद्र ! देख, तू त्रिलोकीनाथ के तीन छत्र के ऊपर बैठा है। तू अशोक वृक्ष के भी ऊपर, अधर में आसीन है !'
""और शालिभद्र ने खुली आँखों देखा : सचमुच ही वह लोकालोक के छत्रपति के मस्तक पर आरूढ़ है। .
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