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'मेरे जैसा ही नंग- निहंग हो जा, तो दिग्विजयी चक्रवर्ती का शासन भी तुझ पर नहीं चल सकता ! '
'तो इसी क्षण मुझे अपने जैसा बना लें, भगवदार्य ! '
' भाग कर जायेगा रे ? व्यथा तेरी ही नहीं, तेरी माँ और तेरी स्त्रियों की भी तो है । ग्रंथ तोड़ कर नहीं, खोल कर ही निहंग हो सकेगा । अपना भोग्य भोग कर आ, ऋणानुबन्ध पूरे हुए बिना निस्तार नहीं ।'
'मैं अब क्षण भर भी बँध और बाँध नहीं सकता,' स्वामिन् !
'न बँधने और न बाँधने का अहम् जब तक शेष है, तब तक तू स्वतंत्र कहाँ ? अपनी स्वतंत्रता के लिये अब भी तू औरों पर निर्भर है रे। औरों को लेने या त्यागने वाला तू कौन ? वह सत्ता तेरी है क्या ? पर को त्यागने का दम्भ करके, तू मुक्त होना चाहता है ? '
'तो क्या आज्ञा है, देव ?'
'अपने महल में लौट जा, अपनी माँ और अंगनाओं के पास लौट जा । उनसे अपनी अन्तर- व्यथा का निवेदन कर । उनकी व्यथा का समवेदन कर, उससे अनुकम्पित हो, उनके प्रति समर्पित हो कर रह जा । वे तुझे निर्ग्रथ कर देंगी । माँ की जाति है रे, जो गाँठ बाँधती है, खोलना भी केवल वही जानती है !
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... और एक दिन अप्रत्याशित ही शालिभद्र शान्त मौन भाव से महल में आया । उस दिन सारा अवसन्न महल अचानक उत्सव के आनन्द में मगन हो गया । यथा प्रसंग शालिकुमार ने माँ और पत्नियों को क्रमशः अपनी पुकार कह सुनाई। माँ की आँखें हर्ष के आँसुओं से भर आईं। बोली : 'जनम के ही योगी रहे तेरे बापू, बेटे । उन्हीं के तेजांश ने तो मेरी कोख भरी थी एक दिन । योगी का वीर्य नीचे कैसे आ सकता है, ऊपर ही तो जायेगा ! ' —— कह कर माँ ने मौन मौन ही नयन भर कर अनुमति दे दी । अनन्तर हर रात शालिभद्र अनुक्रम से अपनी प्रत्येक पत्नी के साथ बिताने लगा । ““सबेरे उठ कर हर पत्नी, अपने स्वामी के मुक्तिकाम को समर्पित हो जाती । हर सबेरे वह एक और रमणी, एक और शैया से उत्तीर्ण हो जाता ।
हर पत्नी अपने पति के इस सर्वजयी पौरुष के प्रति निःशेष समर्पित होती गयी । सब की निगाहें उस महापंथ पर लगी थीं, जिस पर एक दिन उनका प्राणनाथ प्रयाण करता दिखायी पड़ेगा । और फिर वे भी तो उसी के चरण-चिह्नों पर चल पड़ेंगी !
राजगृही का धन्य श्रेष्ठी नवकोटि हिरण्य का स्वामी था । वह शालिभद्र की छोटी बहन विपाशा का पति था, सो उसका बहनोई था । दोनों में परस्पर
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