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________________ २७९ '.'जहाँ मेरा भी कोई स्वामी है, जहाँ मेरे ऊपर भी कोई है, जहाँ कोई भी स्वाधीन नहीं, जहाँ हम सब एक-दूसरे के बन्दी हैं, उस लोक में अब मैं नहीं ठहर सकता !...' __कह कर शालिभद्र कुमार, हठात् वहाँ से पलायमान हो गया । किसी की हिम्मत न हुई कि उस प्रभंजन को रोक सके। देखते-देखते वह किसी विदेशी विहंगम की तरह, सब की आँखों और पकड़ से परे, जाने किन आसमानों में उड़ निकला। सेठानी का सारा परिकर उसकी खोज में निकल पड़ा। लेकिन शालिभद्र ऐसा चम्पत हुआ, कि दूर-दूर तक उसका कोई पता-निशान ही न मिल सका। ____ 'इन्द्रनील प्रासाद' के विस्तृत उद्यान के पश्चिमी छोर पर, प्राकृतिक वन-भूमि है। गोभद्र श्रेष्ठी ने वैभार पर्वत की एक गुफा कटवा कर मंगवा ली थी, और उसे इस वनखण्डी में स्थापित करवा दिया था। भूमि से जुड़ कर वह प्राकृतिक ही लगती थी। गोभद्र श्रेष्ठी भावज्ञानी था। उसमें आत्मा की कविता स्फुरित थी। उसे कल्पना हुई, कि वैभार गिरि की गुफ़ा उसके उद्यान में आये, और वह उसमें ध्यान-साधन करे। कौन जाने कभी योगीश्वर महावीर ने ही उसमें कायोत्सर्ग ध्यान किया हो! उसका सपना सिद्ध हुआ, गुफ़ा का नाम रख दिया-'चिन्मय गुहा ।' "उस दिन शालिभद्र भाग कर और कहीं न गया था, इस 'चिन्मय गुहा में ही जा घुसा था। भद्रा सेठानी के अनुचर योजनों तक शालि को खोज आये थे, घर-उद्यान का कोना-कोना छान मारा था। लेकिन इस गहा के अन्धकार में प्रवेश करने की उनकी हिम्मत न हो सकी थी। और भला जो साँकल तुड़ा कर भागा है, वह इस गुहा में क्यों छुपेगा ? .. लेकिन बचपन से ही शालिकुमार इस गुहा से आकृष्ट था। अपने अन्तर्मुखी भाविक पिता को उसने इस गुहा के अन्धकार में प्रायः ध्यानस्थ देखा था। तब से इस कन्दरा का गोपन एकान्त उसे बेतहाशा खींचता रहता था। .. सो उस दिन इसी गुहा में घुस कर, वह इसके तमाम अँधेरों का भेदन करता हुआ, इसके पार निकल जाने का चरम संघर्ष कर रहा था। चलते-चलते गुफ़ा के भीतर एक और अन्तर्गुफ़ा सामने आयी। उसमें एक निरावरण पुरुष, प्रतिमा योगासन में ध्यानस्थ बैठा था। वह अपनी ही आन्तर विभा से भास्वर था। उसकी पृष्ठभूमि में एक अथाह नील शून्य था। शालिभद्र अवाक्, विमुग्ध देखता ही रह गया। उसके हृदय की व्यथा से अनुकम्पित हो कर धर्मघोष मुनि समाधि से बाहर आये। उनकी प्रशम रस से विजड़ित दृष्टि को देख, शालिभद्र को किसी अननुभूत सुख का रोमांच हो आया। मुनि ने उसकी ओर सस्मित निहारा । और शालिभद्र से पूछते ही बना 'क्या करने से राजा का स्वामित्व न सहना पड़े, देव ?' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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