SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 28
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८ - हठात् रोहिणी का रुदनाकुल, प्रेमाकुल कण्ठ-स्वर सुनायी पड़ा : __'सृष्टि और मनुष्य की माँ हूँ मैं, हे परमपिता त्रिलोकीनाथ ! भावी के सारे युद्धों और रक्त-क्रान्तियों को सहूँगी अपनी इस छाती पर। और सारे रक्तपातों और हत्याओं के बीच भी, सर्वकाल तुम्हारे चरणों के कमल मेरे वक्षोजों से फूटते रहेंगे। और उनमें अनाथ, पराभूत और घायल मानवता को, सदा प्यार की परम शरण गोद प्राप्त होती रहेगी। हर बार वहाँ से उठ कर मनुष्य का आत्महारा बेटा, उत्क्रान्ति और उत्थान के उच्च से उच्चतर शिखरों पर आरोहण करता जायेगा। श्रीभगवान् के पग धारण को, मेरी यह छाती सदा इतिहास के शूलों पर बिछी रहेगी। मैं नारी हूँ, भगवन् । मैं माँ हूँ-सकल चराचर की, यह मेरी परवशता है । समर्पित हूँ प्रभु, मुझे अंगीकार करें, मुझे अपनी सती बना लें। मुझे पारमेश्वरी दीक्षा दे कर, अपनी सहधर्मचारिणी बना लें।' 'तुम शाश्वती में चिरकाल सत्ता की परम सती के ध्रुवासन पर बिराजोगी, रोहिणी। भगवती चन्दन बाला मनुष्य की माँ के भावी पथ का अनुसन्धान करें।' एक अव्याहत मौन लोकान्तों तक व्याप गया। ... और औचक ही महासती चन्दन बाला के करुण-मधुर कण्ठ की सान्द्र वाणी उच्चरित हुई : 'आर्यावर्त की महाचण्डिका रोहिणी संन्यासिनी नहीं होगी। वह शिवंकरी हो कर, भव-त्राण में चिर काल नियुक्त रहेगी। वह भगवान् की महाशक्ति है। अन्धकार की दानवी शक्तियों की मुण्डमाला अपने गले में धारण कर, वह अनाथ सृष्टि को सदा अपनी सर्ववल्लभा छाती में अभय और शरण देती रहेगी। वह सहस्र शीर्ष, सहस्राक्ष, सहस्र बाहु, सहस्र पाद होकर रहेगी। अपने हज़ारों हाथों में, हजारों अस्त्र-शस्त्र धारण कर, वह जगत को निःशस्त्र कर देगी। अपने हजारों पैरों से असुर-वाहिनियों का निर्दलन करती हुई, वह भगवती अहिंसा का साक्षात् विग्रह हो कर चलेगी सर्वकाल इस पृथ्वी पर। नारी का दूसरा नाम ही अहिंसा है। माँ हिंसक कैसे हो सकती है। युद्धाक्रान्त वैशाली के लक्ष-कोटि नर-नारी तुम्हारी भवतारिणी, सुन्दर बाँहों में शरण खोज रहे हैं, देवी। तुम्हारी दायीं भुजा में वैशाली का उत्थान है, तुम्हारी बायीं भुजा में वैशाली का पतन है। वैशाली के सत्ताधारी तुम्हें पहचान सकें, तो वैशाली के संथागार में आदि प्रजापति वृषभनाथ का धर्मवृषभ अवतरित होगा। और वह सारी पृथ्वी पर संचरित हो कर, इस धरित्री को प्राणि मात्र की कामधेनु बना देगा। और नहीं तो प्रलय की सहस्रचण्डी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy