________________
'निश्चय ही रक्त-क्रान्ति अनिवार्य है, आयुष्यमान् लिच्छवि। रक्त का प्रकृत प्रवाह अवरुद्ध हो गया है, तो रक्त-क्रान्ति होगी ही। सड़े और ग्रंथीभूत रक्त का बह जाना ही प्राकृत है, मंगल है। सारे जम्बूद्वीप के रक्त में जड़ सुवर्ण की गाँठे पड़ गयी हैं। सारी मनुष्य जाति का नाड़ी-मण्डल लोभ के मवाद से टीस रहा है। एक प्रकाण्ड अर्बुद-ग्रंथि (कैंसर) से सत्ता का चैतन्य-केन्द्र जड़ीभूत हो गया है। अपना ही रक्तदान करके, सत्ता को इस महामृत्यु से मुक्त करो, आयुष्यमान् । आत्माहुति की यज्ञ-ज्वालाओं में ही, वह वज्र गल सकेगा। इसी से कहता हूँ, रक्त-क्रान्ति अनिवार्य है, देवानुप्रिय । यदि अवरुद्ध रक्त क्रान्त न हो, निष्क्रान्त न हो, तो अतिक्रान्ति कैसे हो। अतिक्रान्ति न हो, तो उत्क्रान्ति कैसे हो। मुक्ति-पन्थ पर अगला उत्थान कैसे हो । ...
'जनगण सुनें, कल वैशाली में रक्त-क्रान्ति का सूत्रपात हुआ। महावीर के उत्तोलित रक्त ने पूर्व द्वार के स्वागत-समारोह को नकार दिया। वह वैशाली के बन्द और वज्र-जड़ित पश्चिमी द्वार पर टकराया। मेरे सहस्रार के सूर्य-मण्डल को भेद कर, उस रक्त ने दिक्काल पर पछाड़ खाई।
और मेरे एक दृष्टिपात मात्र से सत्ता की साँकलें तोड़ कर, वे बरसों के वज्रीभूत कपाट स्वतः खुल गये। और उसी के अनुसरण में उत्तरी और दक्षिणी द्वार भी आपोआप खुल पड़े। अलक्ष्य में एक प्रलयंकर नीरव विस्फोट हुआ। जन-जन उससे स्तब्ध हो गया। वैशाली के लाखों सैनिक परकोट छोड कर, शस्त्र त्याग कर, महावीर के नगर-विहार का अनगमन कर गये। आज वैशाली के चारों द्वार सारे संसार के लिये खुले हैं। तमाम परचक्रों और आक्रमणकारियों के लिये खुले हैं। परकोटों तले शस्त्र धूल चाट रहे हैं। वैशाली के तमाम राजा और सामन्त अपनी तलवारें त्याग कर ही इस समवसरण में प्रवेश कर सके हैं। केवल रोहिणी एक तीर लेकर यहाँ आई : अपनी ही छाती उससे छिदवा लेने के लिये। लेकिन वह तीर व्यर्थ हो कर शून्य में टॅगा रह गया। रोहिणी के हृदय का रक्त आपोआप ही फूट आया। वह माँ के प्यार का रक्त है, वह अर्हत् महावीर के हृदय का रक्त है। वह फूट कर कमल ही हो सकता था। यही महावीर की वैश्विक रक्त-क्रान्ति है ! महावीर के इस रक्त-कमलासन को कौन अपने हृदय पर धारण करेगा? आने वाली रक्त-पिच्छिल शताब्दियों में, कौन इस रक्त-क्रान्ति का नेतृत्व करेगा? ...'
एक अ फाट मरुस्थल की भयंकर निरुत्तरता में, श्रीभगवान् के शब्द काल और इतिहास के आरपार अप्रतिहत गंजते चले गये। उन्हें प्रतिसाद देने वाली क्या कोई वाणी पृथ्वी पर विद्यमान नहीं है ?
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org