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________________ . . २६९ जाग कर श्रीमती ने देखा, बया पंछी उड़ चुका था। सूत्र-तंतुओं के जाल से बुना वह नीड़ ख़ाली पड़ा था। उसकी खोखल में सूरज की एक किरण पड़ रही थी। __ "उस किरण में जाने कितनी दूरियाँ खुलती आयीं। एक पर एक कितने दृश्यान्तर, कितने रूपान्तर, कितने जन्मान्तर। यह कैसी प्रत्यभिज्ञा हो रही है? यह कैसा प्रतिक्रमण है ? श्रीमती को जाति-स्मरण ज्ञान हो आया। उसकी आँखों से आँसू झरने लगे। मन ही मन बोली : 'ठीक ही तो हुआ, तुम चले गये सामायिक ! मैं हूँ बंधुमती। उस भव में तुम्हारी चाह पूरी न कर सकी थी : इच्छा-मरण कर गयी थी। और तुम भी तो फिर जी न सके थे। ईशान स्वर्ग में देव-देवी हो कर हम साथ रहे, फिर भी तो बिछुड़े ही रह गये। तुम्हारा रागानुबन्ध शेष न हो सका। इसीलिये तो लौट कर फिर मैं श्रीमती हुई, तुम्हारे लिये। पर तुम मुझ से भागते फिरे। आख़िर बाँध लायी तुम्हें : तुम पहचान गये मुझे। तुम्हारी इच्छा को निःशेष तृप्त कर, अब फिर तुम्हें अपनी मुक्ति की राह पर लौटा दिया मैंने। मेरा जन्म-कर्म, भोग-योग पूरा हुआ। मैं कृतार्थ हुई, निष्क्रान्त हुई। मेरा नारीत्व कृतकाम हुआ। बेखटके जाओ, तुम्हारा चिर मगल हो, चिर कल्याण हो ! तुम्हारे मन की मनई तुम्हें मिले !' "और श्रीमती की आँखों से झरते आँसुओं में जाने कितने जन्मों की मोह-ग्रंथियाँ गल-गल कर बहती चली गयीं। दूर दिगन्त को ताक कर बोली : 'मैं अन्य कोई नहीं, तुम्हारी आत्मा ही हूँ ! तुम जहाँ भी विचरोगे, मैं सदा तुम्हारे साथ हूँ।...' __ और द्रुत पगों से अनिर्देश्य विहार करते दिगम्बर आर्द्रक मुनि को हठात् अपने लक्ष्य का शिखर दिखायी पड़ गया। वे निर्दिष्ट और बेखटक ठीक दिशा में चल पड़े। उनकी अन्तश्चेतना में आपोआप स्फुरित हुआ : 'श्रीमती, तुम मेरा बन्धन नहीं, मुक्ति हो। यह बात मैं निर्वाण की सिद्धशिला और प्राग्भार पृथ्वी पर पहुँच कर भी भूल न सकूँगा ।...' वसन्तपुर से राजगृही की ओर जाते हुए आर्द्रक कुमार ने, एक जगह पाँच-सौ सामन्तों को चोरी का उद्यम-व्यवसाय करते देखा। सामन्तों ने अपने खोये राजपुत्र को पहचान लिया। आर्द्रक को दिगम्बर यतिलिंग में देख कर, वे बरबस उनके चरणों में नमित हो गये। आर्द्रक मुनि ने कहा : 'सामन्तो, तुमने यह अधम आजीविका क्यों ग्रहण की? इतने गिर गये तुम ?'--सामन्त बोले : 'हे स्वामी, जब आप हमें धोखा दे कर चले गये, तो हम अपना काला मुँह ले कर आईकराज के पास कैसे जाते ? सो आप की खोज में ही पृथ्वी पर सर्वत्र भटक रहे हैं। इस आर्य देश में किसी ने हम पर विश्वास न किया। तब निर्धन शस्त्रधारियों के लिये जीने का और उपाय ही क्या था ? हम चोरी करके अपना उदर पोषण करने लगे।' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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