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'निर्वसन निष्किचन हो कर मेरा अनुसरण करो, भव्यो! तुम्हारा जीवितव्य अयाचित ही तुम्हें मिलता जायेगा। तुम्हारी सारी कामनाएं पूरी होंगी। तथास्तु !'
वे पाँच-सौ सामन्त चोर अपने वस्त्र-शस्त्र और सारा चुराया धन, क्षण भर में जीर्ण केंचुल की तरह त्याग कर, निग्रंथ दिगम्बर हो गये। और अपने एकमेव स्वामी और गुरु का अनुगमन करने लगे।
यह उन दिनों की बात है, जब गोशालक अर्हन्त महावीर का द्रोही हो कर, लोक में घूर्णि-चक्र की तरह घमता हुआ, अपने अष्टांगी भोगवाद और नियतिवाद का धुंआधार प्रचार कर रहा था। राजगृही के मार्ग पर अपने पाँच-सौ निगण्ठ शिष्यों के साथ धावमान आर्द्रक मुनि की, सहसा ही गोशालक से भेंट हो गयी। सन्मुख राह रूंध कर गोशालक बोला : ___ 'ओ रे कोमल कान्त कुमार, तू अपनी देव-तुल्य काया को इस कृच्छु तपस्-क्लेश से क्यों नष्ट कर रहा है ? क्या तेरे इस श्रम से तुझे सिद्धि मिल जायेगी? पुरुषकार सत्य नहीं, पुरुषार्थ मरीचिका है। सब कुछ नियत है रे, सब कुछ नियत । जो होना है, वह हो कर रहेगा, फिर तुम सब अपने को क्यों मिट्टी में मिला रहे हो? अरे तुम इस जगत् को जी भर भोगो, इच्छामत जियो, मुक्ति ठीक समय पर आप ही मिल जायेगी !'
धीर गम्भीर स्वर में आर्द्रक कुमार ने उत्तर दिया __ 'जब नियति ही अनिवार्य सत्य है, सौम्य, तो हमारी बर्तमान चर्या भी, क्या उसी के अन्तर्गत नहीं? जब पुरुषकार है ही नहीं, तो जो भी हम कर रहे हैं, बही क्या हमारी नियति नहीं? हर एक की नियति भिन्न है, महानुभाव आर्ग। आप अपनी नियति में विचर रहे हैं। हम अपनी नियति में। नियति के बाहर क्या कुछ सम्भव है, कि आप हमारे आचार को पुरुषकार कह रहे हैं ? आपने पुरुषकार को नकार कर ही, उसे स्वीकार लिया, आचार्य, यह शायद आप भल रहे हैं !'
गोशालक निरुत्तर स्तम्भ-सा खड़ा रह गया। और आर्द्रक मुनि एक अनिर्वार नियति-पुरुष की तरह, अपने पाँच-सौ शिष्यों सहित आगे प्रयाण कर गये।
आगे चल कर स्वायम्भुब ऋषि आर्द्रककुमार हस्ति-तापसों के एक आश्रम से गुज़रे। वहाँ उन्होंने देखा कि पर्ण-कुटियों के प्रांगण में हाथियों का मांस सूखने को धूप में डाला हुआ था। वहाँ के बासी तापस एक बड़े हाथी को मार कर, उसका मांस खा कर अपना निर्वाह करते थे। उनका ऐसा मत था कि : एक बड़े हाथी को मार डालना ही श्रेयस्कर है, ताकि एक जीव के घात से प्राप्त मांस से ही बहुत काल निर्गमन हो सके। मृग, तीतर, मत्स्य
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