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आर्द्रक ने सुयोग देख कर श्रीमती से कहा : 'तुम्हारी कामना का वृक्ष फल गया। तुम पुत्रवती हुई। तुम अब रमणी न रही, माँ हो गयी। तुम्हारी प्रीति अब विभाजित हो गई। खण्ड रमण में सुख कहाँ, नितान्त एकत्व और अनन्यत्व कहाँ। श्रीमती, अब मैं चला। मेरा भोग पूरा हो गया।' पूछा श्रीमती ने : 'कहाँ जाओगे?' उत्तर मिला : 'उस रमणी के पास, जिसका भोग अविभाज्य और अखण्ड है। जो मुझ से अन्य नहीं, जो मेरी अनन्या है। जिसके और मेरे बीच देह की अभेद्य दीवार नहीं।' श्रीमती को कुछ समझ न आया। उसने यही समझा, कि अब यह पुरुष मुझ से ऊब गया है : यह किसी अखण्ड कुंवारी की खोज में जाना चाहता है।
श्रीमती चुप रही। उसने एक युक्ति रची, और उसी के द्वारा अपने पुत्र को इस वियोग की प्रज्ञप्ति करनी चाही। वह प्रति दिन नियम से रुई की पोनी ले कर, एक चर्खे के त्राक पर सूत कातने लगी। माँ को यों रात-दिन सूत कातते देख कर, एक दिन पुत्र ने पूछा : 'माँ, तुम किसी दीन-अकिंचन जुलाहिन की तरह यह क्षुद्र कर्म क्यों कर रही हो?' श्रीमती ने उत्तर दिया : 'तेरे पिता को मुझ से विराग हो गया है। वे कभी भी घर छोड़ जायेंगे। मुझ पति-विरहिता के लिये तब यह त्राक ही तो शरण होगा।' छोटा-सा निर्बोध लड़का माँ का दुःख देख कातर और क्रुद्ध हो कर बोला : 'ओ माँ, तुम चिन्ता न करो। मैं अपने पिता को बाँध कर पकड़ रक्खूगा। देखू, वे कैसे कहाँ जा पाते हैं।' - इस बीच आर्द्रक मुनि घर में ही एकासन से ध्यानस्थ रहने लगे थे। बाहर उनके शरीर के साथ क्या होता है, इस पर उनका लक्ष्य ही नहीं रह पाता था। नित्य का आहार-निहार वे यंत्रवत् करके फिर अपने एकान्त कक्ष में ध्यानस्थ हो जाते। एक दिन वे बाहर के प्रति एकाएक संचेतन हुए। उन्होंने देखा कि-जैसे ऊर्णनाभ मकड़ी अपनी लार से तंतुजाल बुनती जाती है, वैसे ही उनका वह निर्दोष पुत्र अपनी माँ के काते त्राक के सूत्र से अपने पिता के चरणों को लपेट रहा है । "हाय, निष्कलुष बालक के इस स्नेहानुबन्ध को काट कर मैं कैसे जाऊँ ? .. मेरे मन के पंछी को इसने कैसे सूक्ष्म तंतुओं से बाँध लिया है ! इस निसर्ग वात्सल्य को ठुकरा कर, क्या मुक्ति पा सकुंगा? इस प्रेमल पुत्र ने अपने प्रेम के जितने सूत्रों से मेरे चरणों को वाँधा है, उतने वर्ष और इसके साथ रह कर, इसकी अकारण प्रीति का ऋण तो चुकाना ही होगा। अर्हत् जैसे ही इस पवित्र बालक को आघात कैसे दे सकता हूँ?
बालक ने सूत्र के बारह आँटे आर्द्रक के चरणों में लपेटे थे। सो बारह वर्ष और वह योगी गृह-संसार में रह कर, पत्नी और पुत्र का दीना-पावना चुकाता रहा। बारह वर्ष की अवधि पूरी होते ही, एक रात के अन्तिम प्रहर में वह सोयी भार्या और सोये पुत्र को छोड़ कर, चुपचाप चला गया। सबेरे
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