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________________ २६७. कर दी। श्रीमती प्रति दिन आगन्तुक श्रमणों का आवाहन और आहारदान करने लगी। चरण-वन्दना करते समय वह हर मुनि के चरण में उस चिह्न को टोहने की चेष्टा करती। "ठीक बारह वर्ष बाद दिङमूढ़-सा एक तेजःकाय योगी श्रीमती के द्वार पर आ खड़ा हुआ। बिना चरण-चिह्न देखे ही श्रीमती ने उसे पहचान लिया। विह्वल रुदन में फट कर, वह योगी के चरणों में गिर पड़ी। उन धूल भरे पगों को उसने बाहुओं में कस कर, अपनी छाती में भींच लिया। फिर बोली : 'उस बार तुम मुझे दग़ा दे गये, नाथ, पर अब मेरे हाथ से छूट कर तुम जा नहीं सकते। मेरे जन्मान्तर के वल्लभ हो, देखो देखो मेरी ओर । मुझे पहचानो। योगी हो कर सत्य से भागोगे? ""नहीं, नहीं, त्रिलोकी की कोई सत्ता अब तुम्हें मुझ से नहीं बिछुड़ा सकती !' योगी को अचूक लगी उस नारी की वाणी। अनिवार्य थी उसकी ऊष्मा, उसका सम्मोहन ! चिरकाल की परिचित लगी उसकी देह-गन्ध, केशगन्ध । और यह प्यारी आवाज़, कितनी अपनी, कैसी आप्तकाम ! आर्द्रक मुनि को अचानक वह देववाणी याद आ गयी : वह वर्जन-वाणी कि-'तेरा भोग्य अभी शेष है, वह भोगे बिना निस्तार नहीं !' ""मुनि मौन, अपने उपादान को समर्पित, अवश खड़े रह गये। वे नकार न सके। श्रीमती उन्हें हाथ पकड़ कर अपनी हवेली में लिवा ले गई। और उसी सन्ध्या की गोधूलि बेला में, उस अज्ञात कुल-गोत्र अनाम योगी ने यज्ञहुताशन के साक्ष्य से श्रीमती का पाणिग्रहण कर लिया। जाने कितने वर्ष श्रीमती के साथ रमण-सुख भोगते बीत गये। लेकिन आरब्य देश के उस नीली आँखों वाले निर्नाम योगी को नहीं लगा, कि कहीं कुछ बीता है, या रीता है। उसे नहीं लगा, कि उसने अपने से अन्य किसी को भोगा है। एक आकाश क्षण-क्षण नाना रूपों में व्यक्त हो कर, अनन्य भाव से केवल अपने ही को भोगता रहा। एक निश्चल समुद्रगर्भ अपनी ही तरंगों से खेलता रहा। मात्र अपनी ही एक और अभिव्यक्ति, अपना ही एक और अनिवार्य परिणमन। ___ एक-दूसरे में अप्रविष्ट, फिर भी अप्रविष्ट नहीं रह कर, वे परस्पर के छोर तक पहुँचने का संघर्ष करते रहे। उस संघर्ष में से एक दिन एक चिनगारी उठी : वह पिण्डित और रूपायित हुई। श्रीमती ने शुभ लग्न में एक पुत्र प्रसव किया। राजशुक की तरह तुतलाता, नाना बाल्य-क्रीड़ा करता वह पुत्र देखते-देखते एक दिन बड़ा हो गया। "अनन्तर आर्द्रक को नियत क्षण आने पर सहसा ही प्रत्यभिज्ञान हुआ, प्रतिबोध हुआ, कि पर्याय का यह खेल ख़त्म हो गया ! Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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