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सो सब कन्याएँ पारस्परिक रुचि के अनुसार, शर्त लगा कर, अपने बीच से ही एक-दूसरे को वर गईं। तभी अचानक श्रीमती ने कहा :
'ओ री सखियो, मैं तो इन भट्टारक मुनि का वरण करूँगी। इस दिगम्बर कुमार ने मेरा मन मोह लिया है !'
तभी आकाश में से देववाणी सुनाई पड़ी : 'तू अचूक है, बाले । तूने ठीक अपने नियोगी का वरण कर लिया !' मेघगर्जना के साथ देवों ने वहाँ रत्नवृष्टि की। उस गर्जना से भीत हो कर श्रीमती ध्यानस्थ मुनि के चरणों में लिपट गयी। मुनि का प्रतिमायोग भंग हो गया । वे तत्काल वहाँ से प्रभंजन की तरह प्रयाण कर गये । श्रीमती आकस्मिक उल्कापात से आहत - सी देखती रह गई : 'मेरा नियोगी पुरुष मुझे छोड़ कर पलायन कर गया ! हाय, उस निष्ठुर ने मेरी ओर देखा तक नहीं !'
श्रीमती रोती-विलाप करती घर लौट आयी । देववाणी और रत्न - वर्षा की ख़बर राजा तक पहुँची । वह धरती का धनी अपनी भूमि पर बरसे रत्नों को अपने अधिकार की वस्तु जान, उन्हें बटोरने को देवालय आया । राजा के सेवक जब राजाज्ञा से वह रत्न द्रव्य लेने को देवालय में प्रवेश करने लगे, तो नागलोक के द्वार समान वह स्थान अनेक सर्पों से व्याप्त दिखायी पड़ा । तत्काल अन्तरिक्ष वाणी सुनायी पड़ी : 'यह रत्नराशि कन्या के वर को दिया गया उपहार है । अन्य कोई इसे न छुए । कन्या का पिता इसे ले जा कर अपनी निधि में सुरक्षित रखे । और कन्यादान के मुहूर्त की प्रतीक्षा करे ! '
... काल पा कर श्रीमती रूप और यौवन के प्रकाम्य कल्प वृक्ष की तरह फूल - फलवती हो आयी । अनेक श्रीमन्त कुमार, अनेक कामदेव उसके पाणिपल्लव के प्रार्थी हुए । श्रेष्ठी मान-मनौवल कर के हार गया, पर कन्या अपने निश्चय पर अटल रही । 'मैं केवल उस दिगम्बर पुरुष की वरिता हूँ, मेरा भर्तार केवल वही ! तीन लोक में और कोई नहीं ! '
माँ और पिता ने श्रीमती को समझाया : 'गृहत्यागी मुनि का वरण कैसा ? उस अनगारी, पन्थचारी का क्या ठिकाना ? उसका कोई घर नहीं, ग्राम नहीं, नाम नहीं । उस निर्नाम गगनविहारी पंछी को कहाँ तो खोजा जाये ? उसका अभिज्ञान कैसे हो ? उसकी पहचान किसके पास ?' श्रीमती ने कहा : 'बापू, मैं उसे पहचान लूंगी। उसी दिन पहचान लिया था । देवकृत मेघनाद से संत्रस्त भीत हो कर, मैं अपने उन प्रिय स्वामी के चरणों में लिपट गयी थी । तब उनके चरण का एक चिन्ह मैंने देख लिया था । बापू, कल से प्रति दिन नगर में आने वाले हर मुनि का मैं द्वारापेक्षण करूँगी । उन्हें भिक्षा दूंगी। एक न एक दिन मेरे स्वामी, निश्चय ही भिक्षार्थी हो कर मेरे द्वार पर आयेंगे। और मैं उन्हें पहचान लूंगी।' श्रेष्ठी ने समुचित व्यवस्था
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