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माँ भोम को सामने खड़ी देख रहा है। उसकी आँखें सजल हो आयीं। वह निमिष मात्र में ही अपने भीतर समाहित हो गया। वह आत्मस्थ हो गया। उसने नहीं पूछा किसी से मित्र अभय का पता। नहीं पूछा मगध और राजगृही का रास्ता। उसने आदीश्वर की मूर्ति सादर एक विश्वस्त अनुचर के हाथ अभय के पास भिजवा दी। कोई सन्देश न भेजा, अपना कोई पता न दिया। "आदीश्वर प्रभु उसे अपने घर लिवा लाये हैं। सन्देश तो उजागर ही था। - आर्द्रक ने अपने साथ लाया सारा रत्न-धन सात क्षेत्रों में बिखेर दिया।
और स्वयम् ही यतिलिंग धारण कर लिया। सारे वस्त्राभरण समुद्र में फेंक वह दिगम्बर हो गया। उस समय वह बिना किसी से सीखे ही आपोआप सामायिक उच्चरित करने लगा :
सत्वेष मैत्री गुणिषु प्रमोदं, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम्
माध्यस्थभावं विपरीत वृत्तौ सदा ममात्मा विदधातु देव। औचक ही आकाश में से देववाणी सुनाई पड़ी :
'हे महासत्त्व, तू अभी आहती चर्या मत कर। अभी तेरे भोग्य कर्म अवशेष हैं। वह भोगानुबन्ध अनिवार्य है। उसे भोग कर ही तू यतिलिंग में रह सकता है। भोग्य कर्म तो तीर्थंकर को भी भोगे बिना निस्तार नहीं।
कहीं कोई कमल-लोचनी तेरी प्रतीक्षा में है। सावधान !' __ लेकिन उसे तो किसी कमल-लोचनी की प्रतीक्षा नहीं। वह अपनी राह जाने को स्वतंत्र है। स्वधर्म में कोई बाहरी वर्जना की बाधा कैसी? उसने देववाणी की अवहेलना कर दी। वह अपनी मुक्ति की राह पर स्वच्छन्द विचरने लगा। प्रत्येकबुद्ध हो कर वह उत्कट तपश्चर्या करने लगा। चलतेचलते वह अनायास वसन्तपुर नगर में आ पहुँचा। नगर के वन-प्रांगण में, वह किसी निर्जन देवालय में प्रवेश कर प्रतिमा-योग में निश्चल हो गया। सारी उपाधियों से उपराम हो कर वह कायोत्सर्ग में लीन हो रहा । उसका देहभाव जाता रहा।
उसी वसन्तपुर में देवदत्त नामा एक कुलीन श्रेष्टी था। बन्धुमती का जीव देवलोक से च्यवन कर, देवदत्त की भार्या की कुक्षि से पुत्री रूप में जन्मा। उस बाला का नाम हुआ श्रीमती। देवांगना-सी सुन्दरी, वनिताओं के बीच शिरोमणि । धात्रियों द्वारा मालतीमाला-सी लालित वह ललिता, क्रमशः किशोरी हो कर रजोक्रीड़ा के योग्य हो गयी। एकदा श्रीमती नगर की अन्य बालाओं के साथ 'पति-वरण' का खेल खेलने को पूर्वोक्त देवालय में आई, जहाँ आईक मुनि कायोत्सर्ग में उपविष्ट थे। सब बालाओं ने मिल कर कहा : 'सखियो, हम सब आपस में ही अपने-अपने मनचीते पति का वरण करें।' ...
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