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________________ २६४ भाँप लिया। उन्होंने अपने मंत्रियों से मंत्रणा करके यह व्यवस्था की, कि पाँचसौ सामन्तों की निगहदारी में आर्द्रक राजकुमार को सदा नजरकैद रक्खा जाये। दीवार-द्वारों के भी आँखें खुल गईं, कान खुल गये। आर्द्रक को दीखा कि उसके हर पग पर रोक-टोक है। वह एक विराट् कारागार में बन्दी है। सारा संसार ही उसे एक कैदखाना लगने लगा। मानो दिशाएँ तक उस पर पहरा दे रही हैं। और यह सामने का क्षितिज, जैसे मुद्रित कपाटों पर जड़ी एक महा साँकल की तरह अचल है। देखें, कौन रोकता है मुझे अभय के पास जाने से? मैं लांघ जाऊँगा ये दिगन्त । मैं तोड़ दूंगा इस क्षितिज पर जड़ी साँकल को। वह केवल एक भ्रान्ति है। मैं उसे विदीर्ण कर, अपने प्यारे अभय के पास चला जाऊँगा।"और आर्द्रक का अन्न-जल छूट गया। वह दिवारात्र अपने एकान्त में आँसू बहाता रहा । "क्या इन्हीं आँसुओं के बल वह संसार के वज्र कारागार को ध्वस्त कर सकेगा? क्या इन्हीं आँसुओं से वह दिगन्त और क्षितिज के मण्डल को लाँघ जायेगा? .. "एक दिन आईक कुमार को अचानक राह सूझ गयी। वह हर दिन सबेरे घोड़े पर सवार हो कर वायु-सेवन को जाने लगा। उस समय वे पाँचसौ सामन्त उसके अंगरक्षक होकर उसके साथ रहने लगे। आर्द्रक कुमार सहसा ही घोड़े को एड़ दे कर तेज़ दौड़ाता हुआ, सामन्तों से आगे निकल जाता। सामन्त भयभीत हो पवन-वेग से घोड़ा दौड़ाते हुए उसका पीछा करते। कि हठात् आर्द्रक कुमार घोड़े की बाग मोड़ कर खिलखिलाता हुआ लौट पड़ता। सामन्तों को ताली देता, घोड़े को हवा पर फेंकता, वह अपने महल में जा छुपता। हर दिन वह इसी तरह क्रमशः अधिक-अधिक दूर निकल कर, फिर उसी तरह हँसता-खेलता लौट आता। इससे सामन्त आश्वस्त हुए कि यह तो कुमार की क्रीड़ा मात्र है, वह कहीं जाने वाला नहीं है। उधर आईककुमार ने गुप्त रूप से अपने विश्वस्त अनुचरों द्वारा समुद्र के विजन भाग में एक जलपोत तैयार रखवाया। उसे रत्नों से भरवा दिया, ताकि इस अनिश्चित दुर्गम यात्रा में दीर्घ काल तक निर्वाह सम्भव हो सके। और अभय की भेजी हुई आदीश्वर की मूर्ति भी उसने पहले ही अपने पोतकक्ष में सुरक्षित रखवा दी। "अनन्तर नित्य की अश्वचर्या में एक दिन वह सामन्तों की पहुंच से बाहर निकल गया। और प्रस्तुत जलयान में आरूढ़ हो कर वह आर्यों के देश की ओर चल पड़ा। मानो आर्द्रक राजकुमार अपने देश और इस संसार की भी सीमा लाँघ कर, अज्ञात समुद्रों के बीहड़ों में निष्क्रमण कर गया। इतिहास तट पर खड़ा ताकता रह गया। वह एकान्त में रोने वाला कमजोर दिल नाजुक लड़का उसकी पहुंच से आगे जा चुका था। निदान एक दिन आर्य देश के तट पर उसका जलपोत आ लगा। आर्द्रक ने पत्तन-घाट पर उतर कर चारों ओर देखा : मानो कि वह अपनी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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