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________________ २६३ मैं अवश हो गया। मैंने एकान्त में सुयोग पा कर बन्धुमती से कहा : 'मुझे उत्संग-सुख दो, वर्ना मैं जी न सकूँगा!' बन्धुमती बहुत दिनों से मेरा भाव जान गयी थी। वह ज्वाला-सी लहक कर बोली : 'मेरी देह चाहिये न तुम्हें, वह तुम्हें मिलेमी !' और तत्काल बन्धुमती ने कुम्भक में सारे प्राण खींच कर, देह को उच्छिष्ट की तरह त्याग दिया। मैं वहीं मूच्छित हो उस सती के चरणों में गिर पड़ा। और क्षणमात्र में ही मैं भी उसके प्राण का अनुगमन कर गया। हम दोनों ही ईशान कल्प में देव-देवी हो कर जन्मे। साथ-साथ रह कर भी कितने बिछुड़े और अपरिचित ! हमारे बीच कितनी तपाग्नियों का वन था। '."हम जाने कब अपनी-अपनी अलग राहों पर मुड़ गये। ___ 'ईशान कल्प से च्यवन करके ही तो मैं यहाँ इस अनार्य देश में जन्मा हूँ। यहाँ कोई दरद नहीं, दरदी नहीं। प्रीत नहीं, मीत नहीं। यहाँ भाव और ज्ञान का प्रकाश नहीं। यहाँ कोई जिज्ञासा नहीं, कोई लक्ष्य नहीं। यहाँ मुझे कोई नहीं पहचानता। कितना अकेला हूँ मैं, इस समुद्र के जल-जलान्त वीरानों में । "ओ दूरगामी जलयानो, तुम किस ओर जा रहे हो? तुम मुझे अपने घर पहुँचा दो न ! आर्यखण्ड, मगध देश, वसन्तपुर के सामायिक कुनबी का घर जानते हो? नहीं नहीं वहाँ नहीं। वहाँ अब कोई नहीं मेरा।"राजगृही का राजपुत्र अभय क्या तुम्हारे जलयान में यात्रा कर रहा है ? उससे कहो कि यान रोक दे, कहो कि एक कपोत तुम्हारे मस्तूल को खोजता, जाने कब से अपरिचय के नैर्जन्य में अश्रान्त भटक रहा है।' "और उस दिन के बाद आर्द्रककुमार नित्य अपने निजी कक्ष में आदीश्वर ऋषभदेव के बिम्ब से बातें करता, उनका पूजन-अर्चन करता। और यों बड़ी बेचैनी से काल निर्गमन करने लगा। एक दिन आर्द्रककुमार ने अपने पिता से विज्ञप्ति की : 'मैं अभय राजा के पास जाना चाहता हूँ। कहाँ है वह आर्यों का देश, कहाँ है वह राजगृही, जहाँ अभय रहता है ?' .."आईकराज पुत्र की उत्क्षिप्त मनोदशा को कई दिन से देख रहे थे। सो तपाक से बोले : 'जानो बेटे, राजाओं की मैत्री दूर से ही क़ायम रहती है। पास जाने पर वह टूट जाती है।' आर्द्रक की ठीक तह में जैसे चोट हुई : झूठ ! पिता झूठे हैं, यह सारा संसार झूठ में जी रहा है। वह तीखे स्वर में बोला : 'आपने तो कहा था, महाराज, कि हमारी मैत्री का कमल कभी कुम्हलाता नहीं। और वह इतनी जल्दी कुम्हला गया? मैं उस सरोवर को खोज निकालूंगा, जहाँ खिलने वाला मैत्री का कमल कभी कुम्हलाना नहीं जानता।' राजपिता चौंके, और सावधान हो गये। कि तभी आर्द्रककुमार वहाँ से ग़ायब दिखायी पड़ा। पुत्र की इस पागल-विकल चित्त-स्थिति को राजा ने Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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