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मंजूषा दे कर कहना : इसे वे अपने एकान्त में अकेले ही खोलें। और इसमें जो वस्तु है, वह केवल उन्हीं के देखने की है। उसे किसी अन्य को दिखाना न होगा। और आर्द्रक से कहना : 'पोत पर से उड़ा हुआ कपोत जायेगा कहाँ, लौट कर फिर अपने पोत पर ही तो आयेगा! -ठीक यही शब्द कह देना, बन्धु, यह लिख कर नहीं दिया सकता।'
"और आर्द्रक देश का दूत लौट कर अपने स्वामी की राजसभा में उपस्थित हुआ। श्रेणिक के भेजे उपहार आर्द्रकराज को भेंट किये। और आर्द्रक कुमार के निजी कक्ष में जा कर, अभय द्वारा भेजी ताम्र-पेटिका उसे दे कर, उनका सन्देश शब्दशः आर्द्रक को सुना दिया। यह पोत का कपोत कौन ? बारबार दिशाओं तक उड़ कर भी, क्या फिर उसे उसी पोत पर रैन-बसेरा खोजना होगा ?
"आर्द्रक ने अपने खण्ड के सारे भारी पर्दे डाल कर, मुद्रित कक्ष के भीतर वह पेटिका, और वह स्फटिक की डिबिया खोली। सारा कमरा एक अपार्थिव आलोक से जगमगा उठा। एक बोलता-सा बाल्य चेहरा : जैसे उसका अपना ही भीतरी चेहरा, जो उसकी आँखों में अनजाने ही सदा बसा रहता है। एक हरियाली शीतल आलो-छाया में आविर्भूत यह कौन मुखड़ा है ? यह जैसे मुझ से कुछ कह रहा है । मेरी कुशल पूछ रहा है। नाम ले कर बुला रहा है। कितनी परिचित और प्यारी है यह दूरियों से आती आवाज़ ! जैसे यह मेरे रक्ताणुओं को बिद्ध कर के भीतर की सुषुम्ना नाड़ी में से सुनाई पड़ रही है। लेकिन यह एक मणि ही तो है। मैंने पहले कभी, कहीं इसे देखा है।"
__..यह कैसी प्रत्यभिज्ञा? यह किसकी याद है? यह कहाँ की पहचान है ? कौन है यह सामायिक ? यह कौन बन्धुमती उसे विकल हो कर पर पार से पुकार रही है ? स्मृतियों के जाने कितने कोशावरण भीतर खुलते चले गये। उस आनन्द-वेदना में आर्द्रक कुमार मूच्छित हो गया। उसे जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ। वह अपनी परा चेतना में अपने पूर्व जन्मान्तर को आँखों आगे देखने लगा : ___ 'अरे, अब से पूर्व के तीसरे भव में मैं हूँ वसन्तपुर का सामायिक नामा एक कुनबी। और यह मेरी स्त्री बन्धुमती है। अन्यदा सुस्थित नामा आचार्य के पास हम आर्हत् धर्म सुन रहे हैं। उनके प्रतिबोध से हम दोनों ने विरागी हो कर आहती दीक्षा अंगीकार कर ली। कुछ वर्षों बाद, विहार करते हुए जिस नगर में मैं अपने गुरु के साथ आया, वहीं योगात् बन्धुमती भी अपनी प्रतिनी महासती के साथ आयी । “एक दिन अचानक उसे देख कर मुझे पूर्वाश्रम की उत्संग-क्रीड़ा का स्मरण हो आया। अनिवार दीखा वह अनुराग ।
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