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________________ २६० अति दूरंगम नील वेला पर कोई वातायन खुल रहा है।"मित्र, क्या' वहीं है तुम्हारा घर ? एक दिन आऊँगा वहाँ । लेकिन मैं तो अभी छोटा हूँ। अकेले वहाँ कैसे पहुँचूंगा? कौन राह बतायेगा मुझे इस जलारण्य के बीहड़ों में ? लेकिन तुम हो तो ! ... निष्काम आनन्द से आर्द्रक का मन तरंगित हो उठा । उसे ख्याल आया, मन-मीत अभय राजकुमार के लिये कुछ भेजना होगा न । तत्काल वह अपने निधि-कक्ष में गया। प्रवाल के एक करण्डक में मुक्ताफल दीपित थे। एक जलकान्त आभा स्फुरित करते हुए। ओ अपरिचित बन्धु, तुम्हें अपना यह आरब्य सागर भेजता हूँ ! -और आर्द्रक कुमार ने मुक्ताफलों के प्रवाल करण्डक को बन्द कर दिया। समुद्र-शैवाल से बने अंशुक-वस्त्र में उसे आवेष्टित कर, उस पर अपनी प्रिय मुद्रा अंकित कर दी। सामुद्री पोत-मुद्रा। __ मागध मंत्री की विदा का समय आया। आर्द्रकराज ने उसे मरुस्थल के उत्तम खजूर, सोलोमन सुवर्ण की युगल-मुद्रिकाएँ, बालुका-वेलि तथा चाँदनी जैसे शीतल मोतियों का हार, मगधेश्वर और महारानी चेलना के लिये उपहार दिये । आर्द्रक के पत्तन-घाट पर तुंगकाय पोत के एक-सौ-छप्पन पाल खुल गये। मागधी ध्वजा फहराने लगी। लंगर उठ गये। ठीक तभी कहीं से अचानक आ कर आर्द्रक कुमार ने अपनी भेंट की मंजूषा शीलभद्र को सौंपते हुए कहा : _ 'युवराज अभयकुमार क्या मेरी यह तुच्छ भेंट स्वीकारेंगे? उनसे कहना, आरब्य पत्तन का एक छोटा लड़का तुम्हें याद करता है !' "आईकराज परिकर सहित अपने महालय लौट आये । लेकिन अस्तंग सूर्य की किरण से अंकित मागधी पोत का मस्तूल जब तक आँख से ओझल न हो गया, तब तक आर्द्रक कुमार उसे देखता ही रह गया । उस दिन के बाद आर्द्रक कुमार का सारा समय समुद्र निहारने में ही बीतता। दूर-दूर पर जाते पोतों और नावों पर अन्त तक उसकी आँखें अपलक लगी रहतीं। क्या ये सारी नौकाएँ भरतखण्ड की राजगृही नगरी को ही जा रही हैं ? ओ कोई अज्ञात नाविक, तुम मुझे नहीं ले चलोगे वहाँ : लवंग-लता से छाये, दारु-चीनी से सुगन्धित उन समुद्र तटों पर, जहाँ नारिकेल-वन के श्रीफल के भीतर सारा समुद्र बन्द हो कर मधुर हो जाता है ? ऐसा ही तो बन्धुर है, वह मेरा अनदेखा बन्धु । वह मेरा मनचीता मीत । मन की प्रिया परम दुर्लभ है। पर उससे भी दुर्लभ है मन का मीत । वह, जिसके साथ रेशे-रेशे में, पर्त-दर-पर्त मन को बँटाया जा सकता है, बुना जा सकता है, गूंथा जा सकता है। जिसके साथ अन्त तक निरापद जाया जा सकता है। प्रिया और प्रेमिक के बीच कामना है। वह सदा रहेगी। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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