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'महानुभाव, क्या श्रेणिकराज के मेरा समवयस्क कोई पुत्र है ? उससे मित्रता करने को मेरा मन हो आया है।'
शीलभद्र ने उत्तर दिया : 'हमारे अभय राजकुमार आप जैसे ही तो लगते हैं। मगध का साम्राज्य उन्हीं की बुद्धि की धुरी पर टिका है। फिर भी राज्य में उन्हें कोई रस नहीं। सारे ही दिन तो वे नये-नये मित्रों की खोज में घूमते हैं। प्रीत और मीत, यही उनका एक मात्र आमोद-प्रमोद है। प्रेम-क्रीड़ा में ही उनका सारा समय बीतता है। ऐसा कोई गुण नहीं, जो उनमें न हो । बुद्धि के सागर, कलाओं के रत्नाकर । कथा कह कर राह चलते को वश कर लेते हैं। लीला-खेल में ही वे मगध का साम्राज्य-संचालन करते हैं। आप जैसा मित्र पा कर तो वे गद्गद् हो जायेंगे।'
"आर्द्रक कुमार का मन जाने कैसी पूर्व स्मृति से भीना हो आया। वह स्तब्ध हो, मानो बहुत दूरी में देखता हुआ, कुछ भूला-सा याद करने लगा। फिर एकाएक वर्तमान में जाग कर उसने मागध मंत्री से कहा :
'महाभाग मंत्री, मुझ से कहे बिना न चले जायें। आप के अभय राजकुमार के लिये मुझे कुछ सन्देश भेजना है । उन्हें पहचानता हूँ, शायद । कभी कहीं उनका चेहरा देखा है !'
कह कर आर्द्रक कुमार फ़िर जैसे दिगन्त ताकने लगा। आईकराज और आर्द्रा रानी को बहुत आनन्द हुआ देख-सुन कर, कि उनका पुत्र सच ही उनका सच्चा उत्तराधिकारी है। यह हमारी परम्परागत मैत्री का संवहन कर, हमारे राजकुल को यशस्वी बनायेगा। सो 'तथास्तु !' कह कर राजा ने पुत्र का अहोभाव किया । मागध मंत्री आर्द्रकेश्वर की आज्ञा ले अपने अतिथि वास में चले आये।
_ 'आर्द्रक कुमार अपने महल की अटारी पर चढ़ कर, अनजान दिशाओं को टोह रहा है। आरब्य समुद्र की लहरों पर मन ही मन सवार हो कर, उसके क्षितिज की अर्गला को खींच कर जैसे तोड़ देना चाहता है । कहाँ कुछ है ? कोई क्षितिज तो हाथ नहीं आता। एक विराट् मण्डल, जो छुआ नहीं जा सकता, पकड़ा नहीं जा सकता, पहुँचा नहीं जा सकता। लाँघा नहीं जा सकता। निरा शून्याण्ड। वह केवल भ्रान्ति है। तो उसके पार जाना होगा, पता करना होगा कि आगे क्या है ? और आगे और आगे कहीं और कोई और !
और हठात् उसने देखा कि दिशाओं पर छाये कुहरे में जालियाँ खुल गई हैं। वे जल-जालियाँ जल से उठी हैं, और जल में ही पर्यवसान पा रही हैं। आगे चमकीली नीहारिकाओं की यवनिकाएँ सिमट रही हैं। एक
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