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________________ २५८ का सारा जीवन और धर्मचक्र प्रवर्तन और है ही क्या ? कण-कण से मैत्री करने को ही तो वे घर से निकल पड़े हैं । मैत्री की खोज में ही वे अतल पातालों तक में उतर गये हैं । अँधियारे भूगर्भों की तहें छानी हैं। संकट और मृत्यु की वर्जित घाटियों तक में वे गए हैं। अपने हर शत्रु का हृदय जीत लेने के लिए । 'मित्ती में सव्व भूदेसु' । .... श्रेणिक का जी चाहा कि वह कहीं निष्काम मैत्री का सन्देशा भेजे । पहले पहल वह किस राजा को अपनी अकारण मित्रता की सौगात भेजे ? महाविदेह, पुष्करवर द्वीप, प्रभास द्वीप, नन्दीश्वर द्वीप - सभी तो एक साथ उसे मैत्री के लिये पुकार रहे हैं । सकल चराचर उसे मित्रता का आवाहन दे रहे हैं । कहाँ से आरम्भ करे ? ··· तभी श्रेणिक की आँखों में एक सुदूर समुद्र तट झलका । समुद्र के ठीक कटिदेश में पाताल भुवन जैसा आर्द्रक देश । आज का अदन का बन्दरगाह । उस काल का आर्द्रक - पत्तन । वहाँ के राजनगर का भी नाम आर्द्रक । राजा का नाम भी आर्द्रक । रानी का नाम आर्द्रा । उनके युवराज का नाम आर्द्रक कुमार । वहीं सर्व प्रथम अहैतुकी प्रीति का उपहार भेजना होगा । ... और एक दिन मगध का गृहमंत्री शीलभद्र आर्द्रक राजा के दरबार में हाजिर हो गया । मानो स्वयम् श्रेणिक ही मूर्तिमान मंत्री हो कर सामने खड़ा है। आर्द्रकराज को किसी अननुभूत मुदिता का अनुभव हुआ । जाने कैसी अनन्य करुणा से उनका मन आर्द्र हो आया । शीलभद्र ने सिंहासन पर संयुक्त बैठे राजा-रानी के समक्ष अपना मंत्री सन्देश निवेदन किया। फिर 'सौवर्य, निम्बपत्र और कांबल उन्हें भेंट किये काश्मीर का केशर, वैताढ्य - गिरि की हस्ति-दन्त वीणा, मान सरोवर का हंस, नीलांजन पर्वत का मयूर और ताम्रलिप्ति की रत्नमंजूषा, कामरूप मृग की कस्तूरी, यमुनांचल के इत्र - फुलैल । देख कर राजा-रानी, सारी राजसभा, मुग्ध हो कर नम्रीभूत हो आये । । परस्पर कुशल-वार्ता पूछी गयी। तभी पास के एक भद्रासन से उठ कर युवराज आर्द्रक कुमार ने पूछा : 'पितृदेव, ये मगधश्वर श्रेणिक कौन हैं, जिनके साथ आप की प्रीति, वसन्त के साथ कामदेव की प्रीति का बोध कराती है ?' लड़के की कबिता पर सारी परिषद् मुग्ध हो कर हँस पड़ी । 'बेटे राजा, आर्यावर्त के चक्रवर्ती सम्राट श्रेणिक पृथ्वी पर हमारे अनन्म आत्मीय बन्धु हैं । हमारी मैत्री का कमल कभी कुम्हलाता नहीं ! ' आर्द्रक कुमार के जी में जैसे एक अमृत की तरंग-सी उछली । उसने अभ्यागत मंत्री शीलभद्र से पूछा : Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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