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________________ मित्र की खोज श्रेणिक ने मृत्यु और नरक को स्वीकार लिया । और उसने दृष्टि उठा कर चारों ओर फैले चराचर लोक को देखा। अब इसके साथ उसका क्या सम्बन्ध बचा? सहसा ही भीतर परिमल-भीने तीन उजले फूल खिल आये। तीन शब्द मंत्र की तरह स्फुरित हुए। मुदिता, करुणा, मैत्री। प्रत्यक्ष हुआ, कि अन्ततः लोक के साथ उसका यही तो सम्बन्ध है। और औचक ही उसे लगा कि मन मुदित हो आया है। कण-कण के प्रति जी में करुणा का जल भर आया है। प्राणि मात्र से मैत्री करने को उसका हृदय आकुल हो उठा है। जब बाहर के साम्राज्य में उसका मन रमा था, तब भी तो कितने ही देश-देशान्तर के साथ सदा मैत्री-वार्ता चलती रहती थी । पूर्वीय और पश्चिमी समुद्र के तमाम देशों में, मगध के राजदूत मैत्री-वार्ता करने जाया करते थे। श्रेणिक स्वयम् भी छुपे वेश में कई देशान्तरों में मंत्री का सन्देश ले कर जाता था। और अभय राजकुमार के लिये तो यह मैत्री-क्रीड़ा ही सर्वोपरि थी। प्रयोजन उसे याद न रहता, वह अकारण और खेल-खेल में ही जाने कितने दूर-दूर के राज्यों और राजाओं से मैत्री का सूत्र बाँध आता था। .. ___“आज श्रेणिक को याद आ रहा है, कि अभय के सिवाय अन्य सारी मैत्रीवार्ताएँ साम्राज्य-विस्तार का कट-कौशल थीं। वे सब झूठी मित्रताएँ थीं। वह अपने और सब के साथ छल था, प्रवंचना थी। आत्म-प्रतारणा ने ही सर्व-प्रतारणा बन कर मित्रता का मोहक बाना धारण किया था। वह स्वार्थों का गठ-बन्धन था। सारी पृथ्वी का चक्रवर्ती होने के लिये, सारे भूपतियों से दोस्ती करके ही तो उन्हें अपने अंगूठे तले लाया जा सकता था। कोई नू-नच करता था, तो मगधेश्वर की साम्राजी तलवार उसके मस्तक पर मँडलाने लगती थी। ... लेकिन आज का यह मैत्री भाव अकारण है। निष्प्रयोजन है। न्यस्त स्वार्थ के सारे किले टूट गये हैं। कोई हेतु-प्रत्यय नहीं रहा। एक सीमाहीन मैत्री भाव दिगन्तों तक हरियाली की तरह लहरा रहा है । अब श्रेणिक पृथ्वी के एक-एक राजा को, एक-एक जीव को अपना मित्र बनायेगा। श्रीभगवान् Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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