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'हमारे लिये क्या आज्ञा है, प्रभु ! भगवन्त के हर आदेश को हम समर्पित
हैं !'
फिर कपिला का अलग स्वर सुनाई पड़ा :
'प्रभु की आज्ञा हो, तो मैं पाँच सौ श्रमणों को श्रद्धापूर्वक भोजन कराऊँ ! ' कृपया कालसौकरिक ने विनती की :
'प्रभु की आज्ञा हो, तो मैं कसाई वृत्ति इसी क्षण त्याग दूं ! '
प्रभु का सदा का वही उदात्त और अन्तिम आदेश सुनायी पड़ा :
'अहासुहं देवाणुप्पिया, मा पड़िबन्ध करेह ! तुझे जिसमें सुख लगे, वही कर देवानुप्रिय । कोई प्रतिबन्ध नहीं है ! '
एक परम स्वतंत्र हवा में, दिग्वधुओं ने अपने आँचल खसका दिये ।
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