SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 265
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५५ तो मेरे हाथ में सिवाय यह जानने-देखने के और कोई सत्ता नहीं क्या ? "मैं केवल साक्षी भर हो सकता हूँ? ___ कि हठात् प्रभु से उत्तर सुनाई पड़ा : 'यह देखना-जानना ही सब से बड़ी सत्ता है, राजन् । साक्षी भाव ही, परम भाव है। यह आत्मा की अचूक ज्ञान-सत्ता है। अन्य सब सत्ताएँ इसकी चेरियां हैं। तू सब देख-जान कर भी, अज्ञानी क्यों हो रहा है रे श्रेणिक ?' क्षण भर मौन व्याप रहा। श्रेणिक का माथा झुक गया था। कालसौकरिक उन्नत माथ, प्रभु से आँखें मिला कर उन्हें साश्रुनयन देख रहा था। ___ 'इस कालसौकरिक को देख, श्रेणिक। कसाई हो कर भी यह ज्ञानी है। इसने हर अन्य पर-सत्ता से अपने को परे माना। अपनी स्व-सत्ता पर इसने महावीर तक की सत्ता को मानने से इनकार कर दिया। यह कसाई हो कर भी, कसाई नहीं है। यह तर 'जायेगा' ! ...' तभी कपिला ब्राह्मणी आ कर प्रभु को नमित हुई। तो श्री भगवन्त बोले : 'और इस कपिला को देख, श्रेणिक तेरी सारी धनराशि और आधा राज्य भी इसे इसके स्व-भाव से विचलित न कर सके। तेरे धन और राज्य की सत्ता कितनी तुच्छ हो गयी! तूने अपने धन और राजसत्ता से भगवान्, मोक्ष और परम सत्ता के स्वरूप को भी खरीद लेना चाहा? महावीर तक को खरीद लेना चाहा! देख ले उस धन और राज्य की अन्तिम सामर्थ्य ! कौड़ी का मोल नहीं उसका।' फिर क्षण भर एक स्तब्धता व्याप रही। अनन्तर फिर श्री भगवान् बोले : ___'महावीर और मोक्ष के मोल भी तू इन्हें न खरीद सका। यदि महावीर और मोक्ष के मोल पर भी तू नरक को खरीद कर अपने अधीन कर सके, तो जा, तुझे आज्ञा है, वह भी कर देख !' राजा एक महामोह के अँधेरे से हठात्, बाहर के विराट् उजाले में निकल आया। उसने क्षण भर अनुभव किया, देखा, कि वह विदेह हो कर नरक की अग्नियों में चल रहा है। कि उस अग्नि को सीधे झेल कर, वह उसका पूर्ण संचेतन भाव से वेदन कर रहा है। इस महाजलन के बीच भी कैसी एक आनन्द को हिलोर है ! लाँघ जाने की, अतिक्रमण कर जाने की ! वह मन ही मन प्रभु के चरणों में, अपने ही नयन-जल से अपना प्रक्षालन करने लगा। हठात् कपिला ब्राह्मणी और कालसौकरिक ने मानो एक ही स्वर में कहा: Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy