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________________ २५४ 'यह महावीर का आदेश है तेरे लिये, हे भद्र ! क्या तू उसे भी टाल सकता है?' - 'मैं औरों के आदेश-उपदेश पर नहीं चलता, महाराज! कसाई हूँ तो क्या हुआ। मैं निर्भय हूँ, और स्वतंत्र हूँ। मैं केवल अपने स्वयम् के ही आदेश का पालन करता हूँ। अपने ऊपर कोई सत्ता मैं नहीं स्वीकारता !' 'चक्रवर्ती श्रेणिक के राज-दण्ड की सत्ता भी नहीं ?' 'त्रिलोकीनाथ महावीर से क्या श्रेणिक अधिक शक्तिमान है, महाराज!' कसाई का यह अटल निश्चय, तेज और स्वतंत्र निर्भीक चारित्र्य देख, श्रेणिक स्तम्भित हो गया। श्रेणिक ने कहा कि-'तू मेरा सिंहासन ले ले, कालसौकरिक, मेरी सारी सम्पत्ति ले ले, जो चाहे माँग ले, अप्सराओं के स्वर्ग, सिद्धों का सिद्धालय। मेरे प्रभु तुझे मुँह माँगा दे देंगे।' 'मैं किसी का याचक नहीं हो सकता, राजन् । जगत्पति महावीर का भी नहीं। मैं उनकी चरण-रज हो सकता हूँ, पर मेरी नियति को वे नहीं बदल सकते ! वह तो केवल मैं स्वयं ही बदल सकता हूं !' 'ऐसा है तेरा अहंकार, ओ जीवों के हत्यारे, कि तू प्रभु को नकारने का दुःसाहस कर रहा है ? देखू, तू अब कैसे कसाई वृत्ति करता है !' कह कर राजा ने क्रोधावेश में आ कर, कालसौकरिक को एक रात-दिन के लिये अन्ध-कप में बन्द करवा दिया। और फिर श्री भगवन्त के समक्ष जा कर कहा : ____ हे स्वामी, मैंने एक अहोरात्र के लिये कालसौकरिक से उसकी कसाई वृत्ति छुड़वा दी है।' त्रिकालों के पार देखते सर्वज्ञ प्रभु सहज मुस्करा आये, और बोले : 'ओ राजा, तू जान, कि उस अन्ध कूप में भी कालसौकरिक ने मृत्तिका (मिट्टी) के पाँच-सौ पाड़े बना कर उनका हनन किया है !' और राजा की आँखों में प्रत्यक्ष झलक गया वह अन्ध कूप का दृश्य । पाँच सौ मिट्टी के पाड़े बना कर, उनका वध करता वह बन्दी कसाई। देख कर श्रेणिक अवाक रह गया। अहो, पर की वृत्ति बदलने वाला, मैं कौन होता हूँ ! मैंने कालसौकरिक को अन्ध कूप में बन्दी बनाया, पर मैं उसकी वृत्ति को कैद कर सका क्या? उसके परिणमन को बदल सका क्या? कि औचक ही एक आश्चर्य घटित हुआ। कालसौकरिक प्रभु के सम्मुख उपस्थित, नमित दिखायी पड़ा। राजा को फिर एक गहरा झटका लगा।" ओ, मेरा ऐसा दुर्भेद्य कारागार भी, इसके ठोस पुद्गल तक को बन्दी न रख सका? Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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