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कर स्तब्ध रह गयी वह : एक गोले में चन्द्रमा जैसे निर्मल दो कुण्डल निकले, दूसरे में से दो देदीप्यमान रेशमी वस्त्र निकले ।
नन्दश्री की आँखों में आँसू आ गये । एक क्षुद्र कण में से भी विभूति प्रकट हो सकती है । अन्तर्जगत् के रहस्यों को किस ने जाना है। प्रभु की कृपा जाने कितने ही अपमानों और अभिशापों में छुप कर आती है ।
नन्दश्री का देहाभिमान गल गया । चेलना से बड़ी होते हुए भी, उसने आ कर चलना के चरण छू लिये । चेलना मन ही मन सब कुछ समझ गयी । प्रभु की निरन्तर कृपा-वर्षा से, वह सदा सर्व के साथ तन्मय भाव में जीती थी। उसने नन्दश्री को आलिंगन में बाँध लिया। दो समुद्र, एक-दूसरे की तहों में उतराने लगे ।
अनन्तर राजा ने कपिला ब्राह्मणी को बुला कर कहा :
'हे भद्रे, तू साधुओं को श्रद्धापूर्वक भिक्षा दे। मैं तुझे अपार धन - राशि से निहाल कर दूंगा ।'
'चाहे आप मुझे सारी ही सुवर्ण की बना दें, अथवा मुझे मार भी डालें, पर ऐसा अकृत्य मैं कभी न करूँगी, महाराज ! ' कपिला ने अविचल स्वर में उत्तर दिया ।
राजा ने उसके बहुत निहोरे किये। कहा कि अपना आधा राज्य तुझे दे दूंगा, तुझे महावीर से स्वर्ग की इन्द्राणी बनवा दूंगा, तुझे मोक्ष दिलवा दूंगा । बोल क्या चाहती है ? हर चाह पूरी कर दूंगा तेरी, तू इतना कर दे, कपिला ! कपिला ने ज़ोर से अट्टहास कर राजा का मज़ाक़ उड़ा दिया । और तत्काल वहाँ से चली गयी ।
तब श्रेणिक ने कालसौकरिक कसाई को बुला कर कहा :
'ओ रे भाई कालसौकरिक, तू अपनी यह हिंसक कसाई वृत्ति त्याग दे, तो मैं अपने सारे धन- रत्न की निधियाँ तुझ पर वार दूंगा । धन के लोभ से ही तो तू यह अधम वृत्ति करता है ।'
'मेरी वृत्ति को अधम क्यों कहते हैं, महाराज ? मेरे इस कृत्य से तो अनेक मनुष्य आहार पा कर जीते हैं । आपके अनुयायी जिनमार्गी महद्धिक राजे-महाराजे, श्रेष्ठी, ब्राह्मण तक, और सारे आर्यजन छुप-छुप कर, मेरे यहाँ मांस मँगवा कर बड़े स्वाद से खाते हैं । मैं अपनी इस वृत्ति में रोज़ अभिजातों के असली चेहरे देखता हूँ । उनके सुन्दर मुखड़ों में छुपे, खूनी जबड़े देखता हूँ । ऐसा सत्य-दर्शी धन्धा मैं कभी नहीं छोड़ सकता, राजन् । स्वयम् काल भी मुझ से मेरी यह वृत्ति नहीं छुड़वा सकता !'
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