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२५२ 'मैं कुछ ऐसा करूँगा, कि इस नरक को तो टलना ही होगा!' 'तेरे पुरुषार्थ को अर्हत् महावीर देखना चाहेंगे।'
'लेकिन राह तो प्रभु को ही दिखानी होगी। क्या उपाय करूँ नाथ, कि मुझे नरक न जाना पड़े?'
प्रभु के अधर-कमल पर एक वीतराग लीला की मुस्कान खेल गयी। श्रेणिक को सुनाई पड़ा :
'देवानुप्रिय श्रेणिक, यदि कपिला ब्राह्मणी द्वारा तू हर्ष-पूर्वक साधुओं को भिक्षा दिलवा सके, और कालसौकरिक कसाई से यदि तू कसाई वृत्ति छुड़वा सके, तो आसन्न नरक से तेरा छुटकारा हो जाये। इसके सिवाय और उपाय
नहीं।'
श्रेणिक प्रभु के इस उपदेश को हार की तरह हृदय पर धारण कर, श्रीगुरुनाथ को नमन कर, हर्षित भाव से स्व-स्थान की ओर चल पड़ा।
राह में श्रेणिक ने सहसा ही एक जगह देखा : कोई साधु ढीमर की तरह अकार्य कर रहा था। जिनों का प्रवचन कलंकित होते देख, राजा कातर हो आया। वह उस साधु को अकार्य से निवार कर फिर अपने घर की ओर चला। आगे चल कर, एक सगर्भा श्रमणी दिखायी पड़ी। राजा ने उसे वत्सल भाव से अपने महल में ला कर गुप्त रक्खा। उसके सुखी प्रसव का आयोजन कर दिया। निरन्तर श्रेणिक के पीछे प्रच्छन्न भाव से चल रहा दर्दरांक देव, राजा की इस उदात्त श्रद्धा से प्रीत हो गया। मुग्ध और विनत हो आया।
एक दिन श्रेणिक के सामने प्रत्यक्ष हो कर वह बोला :
'आप सम्यक्त्व के मन्दराचल हैं, महाराज। आपकी श्रद्धा के मूल अतल में पड़े हैं। इन्द्र ने अपनी सभा में जो आपका अहोगान किया था, वैसा ही पाया मैंने आपको। आपकी जय हो, राजन् !'
कह कर दर्दुरांक देव ने, दिन में छिन्न नक्षत्रों की श्रेणि रची हो, ऐसा एक हार, और दो गोले राजा को उपहार दिये। और बोला :
'जो इस टूटे हुए हार को जोड़ देगा, उसकी मृत्य हो जायेगी !'
इतना कह कर वह देव स्वप्न में देखे पुरुष-सा तत्काल अन्तर्धान हो गया।
"राजा ने बहुत प्रसन्न हो कर हार चेलना को दिया, और गोले नन्दश्री को दिये। मनस्विनी नन्दा को इससे पीड़ा हुई, शायद ईर्ष्या हुई। मन ही मन बोली : 'क्या मैं इस तुच्छ दान के योग्य ही हूँ ?' "और फिर आवेश में आ कर उसने उन दोनों गोलों को स्तम्भों पर मार कर फोड़ दिया। देख
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