________________
मा पड़िबन्ध करेह
'जो प्रारब्ध को न टाल सके, वह प्रभु कैसा?' - कल की धर्म-पर्षदा में श्रेणिक की इस चुनौती का प्रभु ने कोई उत्तर न दिया था। वे स्व-स्थान पर ही अन्तर्धान हो गये थे। तो श्रेणिक प्रभु से रुष्ट हो गया था। उसका मन अपने स्वामी से विमुख हो गया था। उसके भीतर नरक के द्वार खुल रहे थे। वह निरस्तित्व हुआ जा रहा था। अपनी हस्ती को ही उसने नकार दिया था, फिर महावीर कहाँ। वह अन्तिम द्वंद्व की यातना से गुजर रहा था। आज के समवसरण में भी वह प्रभु के सामने उपस्थित था। फिर भी प्रभु से अब कुछ और पूछना, उसे अपनी आत्मा का अपमान लगा। माना कि संचित कर्म है, उदयागत प्रारब्ध है, लेकिन कुछ क्रियमाण भी तो है। तो फिर शायद प्रभु के पास मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं है। मैंने पूछा था : 'जो प्रारब्ध को न टाल सके, वह प्रभु कैसा?' श्री भगवान् इसका उत्तर न दे सके ? मेरे स्वामी, और इतने असमर्थ ?....
एक गहराते मौन को चीरता, प्रभु का उत्तर सुनाई पड़ा :
'नहीं, अन्तत: कोई किसी अन्य का प्रभु नहीं, कोई किसी के प्रारब्ध को नहीं निवार सकता। हर आत्मा स्वयम् ही अपनी प्रभु है, अपने हर प्रारब्ध की वही विधात्री है। अपने अर्जित को वह स्वयम् ही काट सकती है, अन्य कोई नहीं। यही सत्ता का शाश्वत विधान है। इसमें मीन-मेख नहीं हो सकती।'
'तो मैं अपने आसन्न नरक-गमन को कैसे काट, भगवन् ?'
'जो बाँधा है, उसे भोगे बिना योगी का भी निस्तार नहीं। हर आत्मा का अपना एक स्वतंत्र उपादान है, अपनी एक सम्भावना और नियति है। उसी के विधान से आत्मा अनेक पर्यायों के क्रम से गुज़रता है। इष्ट-अनिष्ट पर्यायों के इस क्रम को जो एकाग्र संयुक्त और समभाव से देखने लगता है, वह इनसे ऊपर तैर आता है। तब उदयागत सुख-दुःख घटित होते हुए भी, उस आत्मा को बस छू कर निकल जाते हैं। उसके आत्म का जी अपने ही में सदा लगा रहने से, वे वेदनाएँ और व्याकुलताएँ उसे व्यापती नहीं। तू उत्तम सम्यक् दर्शी है, सब को एकाग्र ठीक देख-जान रहा है। फिर तू आहत, त्रस्त क्यों है, आयुष्यमान् ?'
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org