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________________ २४९ 'घर पहुंच कर विप्र ने देखा, उसके सारे ही पुत्र और पुत्रवधुएँ कुष्ठ से किलबिला रहे हैं। "हर्षित हो कर उसने कहा 'देखता हूँ, तुम्हें मेरी अवज्ञा का फल मिल गया!' सुन कर वे पुत्र और बहुएं एक स्वर में चीख उठे: 'अरे नराधम, तू पिता है कि पिचाश है। तू ने अपने खून के साथ विश्वासघात किया !' ब्राह्मण चिल्ला पड़ा 'तुम पिशाचों ने तो अपने रक्त को ही भुला दिया। अपने जनक और पालक पिता को तुमने राह के कुत्ते की तरह हँकाल फेंका।' पर उसका वह अरण्य-रोदन किसी ने न सुना। सारा गाँव उस पर थूकने लगा। तब वहाँ से भाग कर, हे राजन्, वह निराश्रित हो, आजीविका खोजता तुम्हारी राजगृही में चला आया। तुम्हारे द्वारपाल ने उसे आश्रय दिया । .. 'तभी हमारा यहाँ आगमन हुआ। सो द्वारपाल अपने काम पर उस ब्राह्मण को जुड़ा कर, हमारी धर्म-देशना सुनने चला आया । वह विप्र द्वार पर नियुक्त खड़ा था। उसने देखा कि सामने दुर्गादेवी के मन्दिर में बलि चढ़ायी गयी है। फिर उसकी जनम-जनम की सोई बुभुक्षा जाग उठी। उसने कस-कस कर बलि प्रसाद खाया, मानो कभी देखा न हो। आकण्ठ पेट भर जाने से और ग्रीष्म-ऋतु के ताप से उसे बहुत तेज़ प्यास लगी। मरुभूमि के पंथी की तरह वह छटपटाने लगा। लेकिन द्वारपाल के भय से वह कहीं पानी पीने न जा सका। उस क्षण उसे लगा कि हाय, कितने सुखी हैं जलचर जीव ! पानी से जन्म ले कर, उसी में रहते हैं। अपने भावानुसार ही उसने नया भव बाँध लिया। और पानी-पानी पुकारता वह तृषार्त ब्राह्मण मर कर, नगर-द्वार के पास की एक बावली में जलचर दर्दुर मेंढक हो गया। 'कालान्तर से हम विहार करते हुए लौट कर फिर इसी नगर में आये। लोकजन सम्भ्रम पूर्वक अर्हन्त महावीर के दर्शन-वन्दन को आने लगे। उस समय उस वापिका में जल भरती स्त्रियों से उस मेंढक ने हमारे आगमन का वृत्तान्त सुना । सुन कर दर्दुर सोच में पड़ गया : 'मैंने ऐसा कहीं पहले सुना है !' वह ऊहापोह करता चला गया, वापिका के पानी में गहरे उतराता गया। हठात् उसे स्वप्न की स्मृति की तरह जाति-स्मरण ज्ञान हुआ। तुरन्त ही मेंढक के मन में स्फुरित हुआ : पूर्वे द्वारपाल मुझे द्वार पर छोड़ कर जिन भगवन्त के वन्दन को गया था, वे भगवन्त अवश्य ही यहाँ आये हैं। मैं भी अन्य लोगों की तरह क्यों न उनके वन्दन को जाऊँ। क्यों कि गंगा तो सब की माँ है, वह किसी की बपौती नहीं। और हर्ष से उमग कर, वह मेंढक उस जलाशय की एक कमल-कली मुँह में लिये, फुदकता हुआ, वापिका से निकल कर मार्ग में चल पड़ा। 'और सुन श्रेणिक, वापिका से यहाँ आते हुए, तेरे ही एक अश्व की टाप से कुचल कर वह मर गया। लेकिन हमारे प्रति प्रीति भाव ले कर मरने से, वह जलचर दर्दुर दर्दुरांक नामा देव हो कर जन्मा। अनुष्ठान के बिना Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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