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कर थूक देतीं। पुत्र तो उसकी ओर झाँकते भी नहीं। निरे श्वान की तरह काष्ठ के पात्र में उसे भोजन डाल दिया जाता। ... ___ 'ब्राह्मण जहर के चूंट उतारता गया । एक दिन उसने एक भयंकर निश्चय किया : 'जैसे मेरे पुत्र मुझ से जुगुप्सा करते हैं, उसी तरह एक दिन ये भी जुगुप्सा के पात्र हो जायेंगे !' ब्राह्मण ने षड्यंत्र रचा। एक दिन पुत्रों को बुला कर कहा : 'हे पुत्रो, अब जीना मेरे लिये असह्य हो गया है, सो मैं इच्छामरण करूँगा । पर हमारे कुल की रीत है, कि इच्छा-मरण करने वाला व्यक्ति अपने परिवार को एक अभिमंत्रित पशु का दान करे। सो ज़रा एक पशु तो ले आओ।'-पुत्र हर्षित हुए कि थोड़े में बला टल गई । फाँसी छूट जायेगी हमारी। उन्होंने एक अभिमंत्रित पशु पिता को भेंट कर दिया। और वे उसके मरण की राह देखने लगे।।
'उधर ब्राह्मण अपने अंगों से झरता रक्त-पीव अन्न में घोल-घोल कर नित्य उस पशु को खिलाने लगा। देखते-देखते पशु कुष्ठी हो गया। तब विप्र ने उस पशु को मार कर, पुत्रों को उसका प्रसाद दिया, कि वे उसे खा कर पितृ-ऋण से मुक्त हो जायें। वे मुग्ध अज्ञानी पुत्र सपरिवार उस मांस का पाक कर, बड़े स्वाद से खा गये। "और तत्काल ही विप्र ने कहा कि: ‘अब मैं तीर्थयात्रा पर जाऊँगा। वहीं देह-त्याग कर दूंगा।' पुत्रों ने उसे सहर्ष बिदा कर, मुक्ति की सांस ली। ___ 'ब्राह्मण अनिद्देश्य भटकता हुआ अरण्य में जा निकला। राह में उसे बहुत प्यास लगी, तो अटवी में जल खोजने लगा। तभी अनेक वृक्षों से घिरे एक प्रदेश में, दुर्लभ मित्र जैसा एक जल का झरना दिखायी पड़ा। उस झरने से बना सरोवर, तीर पर खड़े अनेक जाति के वृक्षों के पत्र, पुष्प और फलों से व्याप्त था। मानो कोई खोया आत्मीय इन निर्जन में मिल गया। सूर्य-किरणों से तपे उस पुष्करिणी के जल को प्यासे विप्र ने जी भर कर पिया। मानो कोई सुगन्धित औषधि-क्वाथ हो । फिर ब्राह्मण वहीं वृक्षों तले वास करने लगा। सरसी पर पड़े पात-फल-फल खा कर, उसका पानी पी तृप्त रहने लगा। कई दिन वह प्राकृतिक औषधि-जल पीते रहने से कुष्ठी का शरीर एकदम नीरोग हो गया। और वसन्त ऋतु के वृक्ष की तरह उसके सारे अंग फिर ज्यों के त्यों प्रफुल्लित हो उठे। आरोग्य लाभ के हर्षावेग में वह विप्र एक दिन अपने गाँव-घर की ओर चल पड़ा । काँचली छोड़े सर्प जैसी देदीप्यमान देह वाले उस पुरुष को नगर में विचरते देख, ग्रामजन विस्मय से विमूढ़ हो गये। नगर-जन हँस कर उसे टोकतेः 'अरे भूदेव, तुम्हारा तो नया ही अवतार हो गया ? क्या तुम वही हो ? विश्वास नहीं होता। कहाँ पा गये ऐसा महारसायन ?' ब्राह्मण कहताः देवता के आराधन से !'
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