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'सेडुक ब्राह्मण को बुला कर राजा ने कहा : भूदेव, तुम्हारी अल्प बुद्धि का चमत्कार देख हम प्रसन्न हुए। बोल क्या चाहता है, माँग ले, दे दूंगा। -मूर्ख विप्र ने सोचा, अपनी चतुरा ब्राह्मणी से पूछ कर ही माँगना ठीक होगा। वह बोला : महाराज की कृपा है, मैं कल उत्तर दूंगा। -उधर ब्राह्मण की बात सुन कर ब्राह्मणी ने सोचा : 'यदि गाँव-गरास मंगवाऊँगी इससे, तो यह जन्मों का भूखा ब्राह्मण, निश्चय ही वैभव पा कर प्रमत्त हो, दूसरी स्त्री ब्याह लायेगा। सो उस चतुर-चकोरी ने सोच कर कहा : मेरे स्वामी, तुम तो परम निर्लोभ हो। यही तो ब्राह्मण के योग्य है। तुम्हारे तप-त्याग से ही तो राजा जीत गया। धन-धरती माँगना ठीक नहीं। माँग लो कि प्रति दिन तुम्हें उत्तम भोजन मिले, और दक्षिणा में एक सुवर्ण-मुद्रा । तुम्हारे लिये यही अनन्त हो जायेगा ।
...'ब्राह्मण की इतनी स्वल्प माँग से राजा चकित, मुदित हो गया। उसने ब्राह्मण को अपना निजी पुरोहित बना लिया। राजा उस पर कृपावन्त हुआ, तो सारी कौशाम्बी के महद्धिक जनों के द्वार उसके लिये खुल गये । चमत्कारी है यह भू-देवता। इसने राजा को युद्ध में जय दिलायी। हर दिन ब्राह्मण के आगे विपुल व्यंजनों से भरे भोजन-थाल लगने लगे। हर दिन कई आमंत्रण । छोड़े भी कैसे, ब्राह्मण का जीव, भोजन कैसे जाने दे ! सो वह ब्राह्मण पहले खाया वमन करके, फिर-फिर भोजन पर जाता । और जितने भोजन, उतनी सुवर्ण-मुद्रा पाता। जितनी मिले, बटोर लाता। भोजन, वमन, फिर भोजन, फिर वमन । और सोनयों की बरसात । देखते-देखते ब्राह्मण दक्षिणा के द्रव्य से सम्पन्न हो गया, और वटवृक्ष की जटाओं की तरह पुत्र-पौत्रादिक से भी उस का घर भर गया। लेकिन नित्य अजीर्ण अन्न के वमन से अपक्व आँव-रस ऊपर चढ़ने के कारण उसकी त्वचा दूषित हो गयी। लाख-झरते पीपल-वृक्ष की तरह वह व्याधिग्रस्त हो गया। अनुक्रमे वह कोढ़ी हो गया, उसकी नाक, और हाथ-पैर सड़-गल कर झड़ने लगे, गिरने लगे। फिर भी वह अग्नि की तरह अतृप्त हो, हर दिन वमनपूर्वक अनेक भोजन करता रहा, दक्षिणा बटोरता रहा।
'राजमंत्री ने एकदा राजा को सावधान किया : इसका कुष्ठ भयंकर हो रहा है। इसकी छूत से सारे नगर में कोढ़ व्याप जायेगा। इसके बदले इसके किसी भी नीरोगी पुत्र को ही भोजन-दक्षिणा देना उचित होगा। जब कोई प्रतिमा खण्डित हो जाये, तो उसके स्थान पर दूसरी अखण्डित प्रतिमा स्थापित करना ही इष्ट होता है। ब्राह्मण ने इस नयी व्यवस्था को स्वीकार लिया। पुत्र राज-पौरोहित्य पा कर प्रमत्त हो गया। उसने मक्खियों से भिनभिनाते पिता को घर से बाहर दूर पर एक झोंपड़ी में रख दिया। उसकी जो पुत्रवधुएँ जुगुप्सा-पूर्वक उसे खिलाने आतीं, वे नाक बन्द कर लेतीं, मुँह फेर
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