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श्रेणिक दिङमूढ़ हो देखता रह गया। जैसे पर्दे उठ रहे हैं। "वस्तु के भीतर एक और वस्तु है। व्यक्ति के भीतर जाने और कितने व्यक्ति हैं। कोढ़ी में देव छुपा है, देव में कोढ़ी छुपा है । यह कोई चमत्कार तो नहीं, आँखों देखी घटना है !
अपरान्ह की धर्म-पर्षदा में श्रेणिक ने प्रभु से विज्ञप्ति की : 'वह कुष्ठी कौन था, भगवन् ?' 'वह देव था, श्रेणिक !' 'तो वह कुष्ठी क्यों हो गया ?' ..
श्रीभगवान् निस्पन्द, मौन दिखायी पड़े। उनके प्रभामण्डल में से दिव्य प्रतिध्वनि सुनाई पड़ने लगी :
'बहुत पहले की बात है। कौशाम्बीपति शतानीक के राज्यकाल में, उनके नगर में एक सेडुक नामा अति दरिद्र और महामूर्ख ब्राह्मण रहता था। अन्यदा उसकी स्त्री गर्भवती हुई, तो उसने अपने पति से कहा : 'मेरी प्रसूति के लिये घी ले आओ, उसके बिना यह व्यथा मुझ से न सही जायेगी।' ब्राह्मण बोला : 'मुझ विद्याविहीन को, क्यों कोई घी देगा?' ब्राह्मणी बोली : 'राजा से जा कर याचना करो। लोक में वही दीन का कल्पवृक्ष है।' उसी दिन से ब्राह्मण राजा की यों सेवा करने लगा, जैसे रत्न-कामी जन फूलश्रीफल से सागर की आराधना करता है।
'तभी एक बार चम्पापति दधिवाहन ने अचानक विपुल सैन्य के साथ कौशाम्बी पर आक्रमण कर दिया। शतानीक अपने अजेय दुर्ग के द्वार बन्द करवा कर, अपनी प्रजाओं और सेनाओं सहित, बाँबी में बन्द हो गये सर्प की तरह, भूगर्भी नगर में उतर गया। चम्पापति की सेनाओं ने दुर्गभेद का मरणान्तक संघर्ष किया। हजारों सैनिक मारे गये। पर दुर्गभेद न हो सका। हार कर दधिवाहन, दिन के डूबते तारों की तरह अपने राज्य की ओर लौट पड़े। राजसेवा के लिये उद्यान में पुष्प तोड़ते सेडुक को पराजय का यह दृश्य देख, एक युक्ति सूझ गयी । “बेदम शतानीक के पास पहुँच उसने कहा : 'महाराज, चम्पापति टूटे पेड़-सा लौटा जा रहा है। इस भग्न शत्रु को पकड़ कर, इसे निर्मूल कर देना ही ठीक है। मृतप्राय सर्प की मणि को छोड़ देंगे आप ?' "युक्ति काम कर गयी। शतानीक का सैन्य हुंकारता हुआ, चम्पापति के बिखरे सैन्यों पर टूट पड़ा। वे अपना सब कुछ छोड़, प्राण ले कर भाग गये। बेशुमार हाथी-घोड़े, द्रव्य और शस्त्र बटोर कर शतानीक अपने नगर में लौट आये।
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