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प्रत्यभिज्ञा हुई : अरे मैं तो सर्वत्यागी महाव्रती श्रमण हूँ। कौन राजा, किसका राज्य, किसका युवराज, किसकी रानी, कौन शत्रु, किसका शत्रु? वे सारी पर्यायें जाने कब की बीत चुकीं । "मैं वह कोई नहीं, मैं हूँ केवल एक स्वभाव में स्थित निरंजन आत्म। वीत-पर्याय, वीत-राग, वीत-द्वेष, वीत-शोक । अवीतमान ध्रुव आत्म। ... _ 'यों आलोचना, प्रतिक्रमण करते हुए प्रसन्नचन्द्र फिर प्रशस्त ध्यान में अवस्थित हो गये। तुमने जब दूसरी बार प्रश्न पूछा : तब एक समयांश के अन्तर से ही प्रसन्न राजर्षि प्रशस्त ध्यान की परा भूमि में विचर रहे थे। सर्वार्थ सिद्धि विमानों के प्रदेश में उनकी चेतना उड्डीयमान थी। ...'
..कि ठीक तभी वन-भूमि में राज-संन्यासी प्रसन्नचन्द्र के सामीप्य में देव-दुंदुभियों का नाद होता सुनायी पड़ा। देवांगनायें फूल बरसाती दिखायी पड़ी। विस्मित-चकित भाव से श्रेणिक ने फिर से पूछा :
'हे स्वामी, अकस्मात् यह क्या हुआ ?' प्रभु का अविलम्ब उत्तर सुनायी पड़ा
'शुक्लध्यान की अन्तिम चूड़ा पर आरोहण कर, राजर्षि प्रसन्नचन्द्र को केवलज्ञान प्राप्त हो गया। कल्पवासी देव उनके कैवल्य का उत्सव मना रहे हैं।'
'तीन ही क्षणों में, एक ही आत्मा क्रमशः सप्तम नरक का तल छू कर, सर्वार्थ सिद्धि को पार कर, कैवल्य के महासूर्य में आसीन हो गयी? अबूझ है भाव की गति, भगवन् !'
_ 'काल के प्रवाह से ऊपर है चैतन्य का खेल, श्रेणिक। महाभाव के राज्य में काल का वर्तन नहीं। अपने ही भावों की गति देख, और जान, कि तू ठीक इस क्षण कहाँ चल रहा है !'
श्रेणिकराज ने अपने भीतर झाँका । "एक नीली स्तब्धता में, कितनी सारी गतियाँ, और कोई गति नहीं। केवल एक निःस्वन मैं, आप ही अपने में तरंगित ।
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