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'जयवन्त हों त्रिलोकीनाथ! अभी वन-पथ में राजर्षि प्रसन्नचन्द्र को पूर्ण ध्यान में लीन देखा । कायोत्सर्ग की उस विदेह दशा में यदि वे मृत्यु को प्राप्त हों, तो वे कौन गति पायें,
भगवन् ? '
तपाक् से प्रभु का उत्तर सुनाई पड़ा :
'सातवाँ नरक ! '
सुन कर श्रेणिक आश्चर्य से अवाक् रह गया । ऐसे महाध्यानी मुनि अन्तिम नरक के रसातल में कैसे पड़ सकते हैं। ऐसा तो नहीं कि प्रभु का उत्तर श्रेणिक ने ठीक से न सुना हो ? शायद उसके सुनने में ही भूल हो गयी । सो क्षण भर रुक कर श्रेणिक ने फिर पूछा :
'हे भगवन्, राजयोगी प्रसन्नचन्द्र यदि ठीक इस समय काल करें, तो कहाँ जायें ? किस योनि में पुनर्जन्म लें ? '
भगवन्त के श्रीमुख से उत्तर सुनाई पड़ा :
'सर्वार्थ सिद्धि के विमान में ?'
श्रेणिक बड़ी उलझन में पड़ गया। एक क्षण के अन्तर पर ही भगवान् • कथन में भेद कैसा ? अविरोध-वाक् सर्वज्ञ की वाणी में अन्तविरोध कैसे हो सकता है ? श्रेणिक ने तत्काल उदग्र हो प्रश्न किया :
'हे प्रभु, आपने क्षण मात्र के अन्तर से दो भिन्न बातें कैसी कहीं ?' उत्तर सुनाई पड़ा :
'ध्यान-भेद के कारण । चेतना में हर क्षण नयी-नयी अवस्थाएँ आतीजाती रहती हैं । आत्म-परिणामों की गति बड़ी सूक्ष्म और विचित्र है, राजन् । उत्पाद, व्यय का खेल निरन्तर चल रहा है । उसमें ध्रुव पर रहना ही तो योग है । प्रसन्नचन्द्र ध्यान में ध्रुवासीन हो कर भी, दुर्मुख के वचन सुन सहसा ही कुपित हो गये । वे समत्व के शिखर से ममत्व के पंक में लुढ़क पड़े। 'मेरा बालकुमार, मेरी रानी, मेरा राज्य, मेरे मंत्री, मेरे शत्रु ! और 'वें क्रोधावेश में आ कर मन ही मन अपने मंत्रियों से रक्ताक्त युद्ध लड़ने लगे । जब तुमने उनकी वन्दना की राजन्, तब वे इसी मनोदशा में थे । इसी से उस समय वे सप्तम नरक के योग्य थे । ...
'लेकिन जब तुम यहाँ चले आये, राजन्, तब प्रसन्नचन्द्र ने एकाएक अनुभव किया कि -- मेरे सारे आयुध तो चुक गये, अब मैं कैसे युद्ध करूँ ? और वे फिर उद्यत हुए कि – अहो, मैं अपने शत्रु को शिरस्त्राण से मारूँगा । और उनका हाथ शिरस्त्राण खींचने को पहुँचा, तो पाया कि वहाँ शिरस्त्राण नहीं, श्रमण की केश - लुंचित मुण्ड खोपड़ी थी । -- तत्काल प्रसन्नचन्द्र को
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