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गई। महातपस्वी प्रसन्नचन्द्र एक पैर पर खड़े हो, बाहु ऊँचे कर, सूर्यमुखी मुद्रा में आतापना ध्यान करते दिखायी पड़े । श्रेणिक ने परिकर सहित क्षण भर रुक कर, दूर से ही उनका वन्दन किया । तभी आगे चल रहे सुमुख मंत्री ने भी रुक कर वन्दन किया और साश्चर्य कहा :
'अहो, कैसा दिव्य है इनका तपस्तेज ! स्वर्ग और मोक्ष भी इनके चरणों पर निछावर हैं ।'
तुरन्त ही दुर्मुख ने तीव्र प्रतिवाद करते हुए कहा :
'अरे क्या ख़ाक़ तपस्तेज है ! तुझे तो पता ही क्या, सुमुख, कि कैसा पलातक और पातकी है यह साधु । यह पोतनपुर का राजा प्रसन्नचन्द्र है । अपने बाला राजकुमार पर सारा राज्य-भार छोड़, बिना कहे ही यह घर से भाग कर मुनि हो गया। इस निर्दय ने एक गोवत्स को बड़ी सारी संसारगाड़ी में जोत दिया। इसकी देवांगना जैसी रानी इसके निष्ठुर विरह में सूख कर काँटा हो गयी है । पर इस कायर को रंच मात्र दया माया नहीं । और इसके मंत्रियों ने चम्पापति अजातशत्रु के महामंत्री वर्षकार से मिल कर, इसके बालकुमार का राज्य हड़प लेने का कुटिल जाल फैलाया है । अरे सुमुख, इस पाखण्डी पलातक को देखना भी पाप है ।'
राजर्षि प्रसन्नचन्द्र कान में जाने कैसे ये शब्द चले गये । उनके ध्यानसुमेरु पर जैसे वज्राघात हुआ । उनकी निश्चल चेतना में दरारें पड़ गयीं । वे चैतन्य के शिखर से लुढ़क कर, चिन्तन के विकल्पों में करवटें बदलने लगे । ... 'अहो, धिक्कार है मेरे अकृतज्ञ मंत्रियों को। मैंने निरन्तर उनका सत्कार किया। उन्हें कितना धन-मान दिया, उच्च पद दिया । फिर भी मेरे निर्दोष पुत्र के साथ वे दावघात कर रहे हैं। मेरा दुधमुँहा बेटा आज अनाथ है | चन्द्रनखा श्री-सौभाग्य विहीन हो कर छिन्न लता-सी मुर्झाई पड़ी है। वह अपने आपे में नहीं । उसका नारीत्व, उसका मातृत्व सब मिट्टी में मिल गया। मेरे गृह-त्याग से ही तो उनकी ऐसी दुर्दशा हो गयी। मेरे अपराध की क्षमा कहीं नहीं । और वे मेरे मंत्री, मेरे रहते वे मेरे शशक जैसे बाल और मेरी मृगी जैसी रानी का सर्वनाश कर देंगे ? ऐसा कैसे हो सकता है । ""मैं, मेरा, मेरी रानी, मेरा पुत्र, मेरा राज्य, मेरे मंत्री, मेरे शत्रु "मैं प्रतिकार करूँगा। मैं मेरा, मैं मेरा, मैं मैं मैं ।'
...और व्यथित, विक्षिप्त राजर्षि प्रसन्नचन्द्र, अपने मनोदेश में ही, अपने मंत्रियों के साथ युद्ध में प्रवृत्त हो गये । युद्ध अन्तहीन होता चला गया। युद्ध में से युद्ध । इस दुश्चक्र का कहाँ अन्त है ?
ठीक उसी समय श्री भगवान् के समवसरण में, महाराज श्रेणिक ने सर्वज्ञ महावीर से प्रश्न किया :
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