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________________ २४१ इसे पा सका? क्या मैं इसके साथ तदाकार हो सका, जो हुए बिना मुझे अब छिन भर भी अब चैन नहीं। .."और राजा सामने खुलते शून्य में थरथराते बच्चे की तरह प्रवेश कर गया। उस काल, उस बेला श्री भगवान् पोतनपुर के 'मनोकाम्य उद्यान' में समवसरित थे। उस दिन सबेरे अचानक महाराज प्रसन्नचन्द्र प्रभु के सम्मुख उपस्थित दीखे। वे निरालम्ब में काँप रहे थे। 'इधर देख राजा, और जान कि शून्य है कि सत् है। अमूर्त है कि मूर्त है। इधर देख !' राजा ने सर उठा कर प्रभु को एक टक निहारा। समय से परे अपलक निहारता ही रह गया। फिर हठात् वह बोला आया : 'शून्य भी, सत् भी। मूर्त भी, अमूर्त भी। शून्य ही सत् हो गया मेरे लिये। अमूर्त भी मूर्त हो आया, मेरे लिये। यह क्या देख रहा हूँ, भगवन् !' 'क्या तू अब भी निरालम्ब है ? क्या तू अब भी अकेला है ? क्या तू अब भी नास्ति है ? क्या तू अब भी शून्य है?' ___ 'मैं अब निरालम्ब नहीं, स्वावलम्ब हूँ। मैं अब अकेला नहीं, क्यों कि मैं अर्हत् संयुक्त हूँ। अर्हत् के ज्ञान से बाहर तो कुछ भी नहीं। मैं अब नास्ति नहीं, अमिट अमित अस्ति हूँ। मैं अब शून्य नहीं, एकमेव सत्ता हूँ।' 'तू कृतार्थ हुआ, राजन् । तू जिनों के महाप्रस्थान का पंथी हुआ !' "महाराज प्रसन्नचन्द्र ने दिगम्बर हो कर जिनेश्वरी दीक्षा का वरण किया। और उसी क्षण उन्हें सम्यक् बोधि का अनुभव हुआ। यह बहुत पहले की बात है। इधर कई वर्षों से वे प्रभु के संग विहार कर रहे हैं। कायोत्सर्ग का तप उन्हें चेतना की उच्च से उच्चतर श्रेणियों पर ले जा रहा है। वे सूत्रार्थ के पारगामी हो गये हैं। सत्ता का स्वरूप उनमें प्राकट्यमान होता दिखायी पड़ता है।। अन्यदा प्रभु, राजर्षि प्रसन्नचन्द्र और अपने विशाल श्रमण-मण्डल से परिवरित राजगृही पधारे। वे 'वेणु-वन चैत्य' में समवसरित हुए। महाराज श्रेणिक अपनी रानियों और परिकर के साथ नंगे पाँव, पैरों चल कर ही प्रभु के वन्दन को जा रहे थे। सब से आगे उनके सुमुख और दुर्मुख नामा दो व्यवस्था-सचिव चल रहे थे। वे तरह-तरह की बातें करते जा रहे थे । कि अचानक मार्ग के दायीं ओर की वनभूमि में सब की दृष्टि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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