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और गांधारी रोहिणी स्त्री-प्रकोष्ठ से छलांग मार कर गन्ध-कुटी के पादप्रान्त में आ खड़ी हुई। और पुकार उठी :
'रोहिणी यहाँ भी निःशस्त्र नहीं आई, नाथ, जहाँ हर कोई अपना शस्त्र बाहर छोड़ आने को बाध्य है। लेकिन रोहिणी अपना अन्तिम तीर ले कर यहाँ आयी है। ताकि उसकी नोक में तुम अपना चेहरा देख सको।'
और रोहिणी ने अपनी बाहु के धनुष पर उस तीर को तान कर, उससे अपनी ही छाती बींध लेनी चाही।
'रोहिणी, तुम्हारा यह तीर महावीर की छाती छेदने को तना है। महावीर प्रस्तुत है, जो चाहो उसके साथ करो !'
रोहिणी चक्कर खा कर, वहीं चित हो गयी। तीर अधर में स्तम्भित रह गया । और रोहिणी के हृदय-देश से रक्त उफन रहा था । श्रीभगवान् ने अपने तृतीय नेत्र से उसे एकाग्र निहारा। वह रक्त एक रातुल कमल में प्रफुल्लित हो उठा। ___ 'माँ वैशाली के हृदय में महावीर ने अपना अमिताभ मुख-मण्डल देखा । जनगण की असंख्य आँसू भरी आँखों में केवल महावीर झाँक रहा है। तीर्थंकर महावीर कृतकाम हुआ। उसे अपना दर्पण मिल गया। मुझे लो, वैशालको । मुझे अपने में ढालो। मुझे अपने में आश्रय दे कर, इस अन्तरिक्षचारी को धरती दो, आधार दो। मेरी कैवल्य-ज्योति को सार्थक करो।'
लाखों अश्रु विगलित कण्ठों से जयध्वनि गुंजायमान हुई : ___ "परम क्षमावतार, प्रेमावतार, अहिंसावतार भगवान् महावीर जयवन्त हों !'
एक महामौन में श्रीभगवान् अदृश्यमान होते-से दिखायी पड़े। और लक्ष-कोटि मानवों ने अनुभव किया, कि वे उनके हृदयों में भर आये हैं। अचानक सुनाई पड़ा :
'महावीर की अहिंसा वैशाली में मूर्त हो। महावीर की क्षमा वैशाली की धरित्री हो। महावीर का प्रेम वैशाली में राज्य करे। वह उसे विश्व की सर्वोपरि सत्ता बना दे। वैशाली की प्रजा ही यह कर सकती है, उसका राज्य नहीं, उसका सत्ता-सिंहासन नहीं ।'
"तभी जनगण का एक तेजस्वी युवा, तरुण सिंह की तरह कूद कर सामने आया:
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