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________________ जो सब से बड़ी बोली लगा दे, वही महावीर का प्रथम अभिषेक और पूजन करे !' रुदन से फूटते कण्ठ से रोहिणी चीत्कार उठी : 'त्रिलोकीनाथ का यह अत्याचार अब और नहीं सहा जाता। वैशाली की लक्ष-लक्ष प्रजा तुम्हारे पगों में पाँवड़े हो कर बिछी है, उसकी ओर तुमने नहीं देखा। क्या अष्ट कुलक गणराजा ही वैशाली हैं, यह विशाल प्रजा वैशाली नहीं?' 'वैशाली की धरती पर इसकी प्रजा का राज्य नहीं, राजवंशी अष्टकुलक राज्य करते हैं। यहाँ व्यवस्था उनकी है, प्रजा की नहीं। प्रजा की छन्दशलाकाएँ (मतदान), उनके धूर्त और वंचक गणतंत्र का मुखौटा मात्र है। वैशाली और अम्बपाली को किसी चाण्डाल या चर्मकार या कुम्भार ने वेश्या नहीं बनाया, उसे वेश्या बनाया है, उसके सत्ताधारियों और साहुकारों ने। उन्होंने, जो सृष्टि के कोमलतम हृदय और सौन्दर्य को भी क्रय-विक्रय के पण्य में ले आते हैं। जहाँ पुरुष स्त्री से सम्भोग नहीं करता, सुवर्ण ही सुवर्ण से सम्भोग करता है। जिनके कानून में मनुष्य, मनुष्य को प्यार नहीं करता, पैसा ही पैसे को प्यार करता है। जहाँ अघोर चैतन्य पर घनघोर जड़त्व का फ़ौलादी पंजा बैठा हुआ है। जहाँ अर्हन्त का सौन्दर्य भी कांचन की कसौटी पर ही परखा जा सकता है। उसे यहाँ कौन पहचानेगा? फिर भी लाखों वैशालक उसे पहचानते हैं और प्यार करते हैं। लेकिन उनकी पहचान और प्यार यहाँ निर्णायक नहीं। वह मूल्य और व्यवस्था का मान-दण्ड नहीं। ...' क्षणैक चुप रह कर श्रीभगवान् फिर बोले : 'अर्हत् महावीर अपने पूर्ण सौन्दर्य के मुख-मण्डल को देखने का दर्पण खोज रहा है। वैशाली के कांचन-कामी दर्पण में वह चेहरा नहीं झलक मकता। तमाम प्रजाओं की असंख्य आँखों में मेरे सौन्दर्य का दर्पण खुला है, निःसन्देह । लेकिन सत्ता और सम्पत्ति के खनी व्यापारों और युद्धों ने उसे अन्धा कर रक्खा है। निर्दोष और घायल प्रजाएँ, अपने भगवान् प्रजापति को प्यार करने और पहचानने से वंचित और मजबूर कर दी गई हैं। महावीर अपना चेहरा देखने को एक अविकल दर्पण खोज रहा है। क्या वैशाली वह दर्पण हो सकेगी?' ___सर्वशक्तिमान वीतराग प्रभु का स्वर कातर और याचक हो आया। ... और वैशाली के लाखों प्रजाजन सिसक उठे। उनके घुटते आक्रन्द में ध्वनित हुआ : 'झाँक सको तो हमारे इन फटते हृदयों में झाँको, देख सको तो देखो इनमें अपना चेहरा! Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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