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________________ सारे लिच्छवियों की तहें काँप उठीं। भगवान् बोलते चले गये : 'तुम्हारे सुवर्ण-रत्नों की साँकलों में जकड़ी है, आर्यावर्त की वह सौन्दर्यलक्ष्मी। तुम्हारे राज्य में सुवर्ण ही सौन्दर्य का एक मात्र मूल्य है। वही प्रेमप्यार और परिणय का निर्णायक है। तुम्हारे यहाँ चैतन्य काम भी जड़ कांचन का कैदी है। तुम्हारे यहाँ जड़ का निर्णायक चैतन्य नहीं, चैतन्य का निर्णायक जड़ पुद्गल है। जहाँ गणमाता गणिका हो कर रहने को विवश है, वह गणराज्य नहीं, गणिका-राज्य है ! ...'' एक प्रलयंकर सन्नाटे में गण राजन्यों के क्रोध का ज्वालामुखी फट पड़ने को कसमसाने लगा। तभी सेनापति सिंहभद्र का रोषभरा तीखा प्रश्न सुनाई पड़ा : __ 'वैशालक तीर्थंकर महावीर वैशाली के प्रति इतने निर्दय, इतने कठोर क्यों हैं ? अहिंसा के अवतार कहे जाते महावीर को, वैशाली के प्रति इतना वैर क्यों है?' 'अहिंसा के अवतार से बड़ा हिंसक और कौन हो सकता है ? क्यों कि वह स्वयम् हिंसा का हिंसक होता है !' 'तो उसका आखेट वैशाली क्यों हो?' ‘क्यों कि वैशाली महावीर न हो सकी, पर महावीर वैशाली हो रहने को बाध्य हैं । लोक में विश्वरूप महावीर वैशाली का प्रतिरूप माना जाता है। क्यों कि वह वैशाली की मिट्टी में से उठा है। वह अपनी जनेत्री धरित्री को इतनी कदर्य और कुशील नहीं देख सकता। जो पूर्णत्व मुझ में से प्रकट हुआ है, वह वैशाली का अणु मात्र अपूर्णत्व भी सह नहीं सकता। तो वह वैशाली के पतन को कैसे सहे। वह इतनी जघन्य कुत्सा और कुरूपता को कैसे स्वीकारे?' 'दया के अवतार महावीर वैशाली पर दया तो कर ही सकते हैं।' 'महावीर सर्व पर दया कर सकता है, पर अपने ऊपर नहीं। वह सर्व को क्षमा कर सकता है, पर अपने को नहीं। इसी से महावीर अपने हत्यारे और बलात्कारी श्रेणिक को क्षमा कर सका, लेकिन वैशाली को क्षमा न कर सका। सारे जम्बूद्वीप में आज वैश्य और वेश्या-राज्य व्याप्त है। लेकिन अपनी जनेता वैशाली को महावीर वेश्या नहीं देख सकता। भगवती आम्रपाली का सौन्दर्य जहाँ एक हजार सुवर्ण के नीलाम पर चढ़ा है, वहाँ भगवान् महावीर का वीतराग सौन्दर्य भी शर्त और सौदे की वस्तु हो ही सकता है ! उसके अभिषेक और पूजा की भी यहाँ बोलियाँ ही लगायी जा सकती हैं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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