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कर पीछी-कमण्डलु फेंक गया। इसकी आत्मा पर ऐसा कौन तमस का पर्दा पड़ा है, नाथ ?'
प्रभु का उत्तर सुनाई पड़ा :
'त्रिपु ठ वासुदेव के भव में तुंगगिरि की गुहा के जिस सिंह को मैंने मारा था, उसी का जीव है यह हालिक कृषिकार, गौतम। सुदंष्ट्र नागकुमार के रूप में भी यही मुझ से बैर लेने आया था। उसका दोष नहीं, उसका कषाय अभी चुका नहीं। लेकिन अब देर नहीं है। प्रतीक्षा करो।'
"लेकिन प्रभु, इस हालिक को मुझ पर प्रीति क्यों कर हुई ?' __ 'उस पूर्व भव में, तुंगगिरि के अरण्य में तू ही मेरे रथ का सारथी था। तुझे उस क्रोध और पीड़ा से फड़-फड़ाते सिंह पर करुणा आ गयी थी। तूने उसे सामवचनों द्वारा शान्त किया था। तभी से तेरा वह स्नेही है, और मेरा वह द्वेषी है।'
लेकिन आज जो कण-कण, प्राण-प्राण के वल्लभ प्रभु हैं, उनके आगे भी उसका वह पुरातन द्वेष टिक सका? जिन श्रीचरणों में सिंह और गाय एक घाट पानी पीते हैं, वहाँ भी उसका क्रोध शान्त न हो सका?'
'हालिक का क्या दोष उस में ? महावीर की वीतरागता कसौटी पर है। उसका प्रेम ही शायद कम पड़ गया !'
'प्रेम के समुद्र में सीमा ही कहाँ, प्रभु ! लेकिन उस जीव की पीड़ा कितनी विषम है। क्या वह उस वैर-ग्रंथि से मुक्त न हो सकेगा?'
'कि ठीक तभी वह हालिक कृषिकार लौट कर श्रीमण्डप में आता दिखाई पड़ा।
'पृथ्वी जोतने में अब मन नहीं लगता, भगवन् । अब कहीं भी मन नहीं लगता। कहाँ जाऊँ ?' . तो तू यहाँ क्यों आया रे हालिक ? यहाँ तो तेरा जी लगा नहीं। तू यहाँ से तो पलायन कर गया था। जहाँ जी लगे, वहीं जा रे। यहाँ क्यों आया?'
‘अपने बैरी वासुदेव का सत्यानाश किये बिना, मेरा जी कैसे लग सकता है?' ___ 'इसी लिये तो तुझे पुकारा है रे, कि तेरे बैरी को पकड़ लाया हूँ, तू उसका उन्मूलन कर दे !'
हालिक को लगा कि वह सिंह रूप में प्रकट हो कर, कराल डाढ़ें फाड़ कर, त्रिपृष्ठ वासुदेव पर झपट रहा है । "हठात् यह क्या हुआ, कि वासुदेव
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