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'वे मेरे गुरु हैं रे, वे प्राणि मात्र के तारनहार श्रीगुरु हैं। तेरे भी।' _ 'मेरे भी? आप के भी? आप ही जब इतने महिमावान हैं, तो आपके गुरु तो जाने कैसे होंगे !'
'चौंतीस अतिशयों से युक्त विश्वगुरु सर्वज्ञ महावीर, अवसर्पिणी के चरम तीर्थंकर, कलिकाल के तारनहार। प्राणि मात्र के मित्र, वल्लभ । मन-मन की हर लेते पीर। हर मन के मीत । कीड़ी के भी, कुंजर के भी, तेरे भी मीत। इसी से तुझे याद किया रे।' - सुनते ही हालिक के मन में प्रभु के प्रति प्रीत जग आयी। और उसी क्षण उसने बोधि-बीज का उपार्जन किया। और फिर पूर्ववत् गौतम का अनुगमन करने लगा।
लेकिन यह क्या हुआ, कि प्रभु के समक्ष पहुँचते ही, उन्हें देखते ही हालिक के चित्त में वैर-भाव जाग उठा। वह क्रोध से भर उठा। उसे पूर्व जन्म का जाति-स्मरण हुआ। उसे याद आया, जन्मों पार एक दिन वह तुंगारण्य में जंगल का स्वच्छन्द राजा सिंह था। और तब यह कमलासन पर बैठा पुरुष त्रिपृष्ठ वासुदेव था। यह प्रभुता के मद से प्रमत्त था। इसने मृगया में केवल अपने क्रीड़ा-भाव को तृप्त करने के लिये, मेरे प्राण का हनन किया था। वही हत्यारा त्रिलोकी का नाथ कैसे हो सकता है? प्राणि मात्र का और मेरा मित्र और तारक कैसे हो सकता है ? उसने आर्य गौतम से कम्पित स्वर में पूछा :
'क्या यही आपके गुरु और विश्वगुरु सर्वज्ञ महावीर हैं ?'
'ओ रे हालिक, तू सूर्य को स्वयम न पहचान सका? क्या वह भी तुझे दिखाना होगा?'
'यदि यही आपके गुरु हैं, भन्ते, तो मेरा आप से अब कोई लेना-देना नहीं। न आपकी दीक्षा ही मझे चाहिये। लीजिये, इसे लौटा लीजिये। इसे अपने पास ही रक्खें। मैं चला.. !'
कह कर क्षण मात्र में ही पीछी-कमण्डलु फेंक कर, वह हालिक कृषिवल बेरोक आँधी की तरह वहाँ से निकल गया। और फिर अपने खेत में लौट कर हल चलाने लगा।
उधर गौतम ने प्रभु को नमन् कर पूछा :
'हे नाथ, आपको देख कर तो सकल चराचर जीव हर्षित हो उठते हैं। ऐसे आप से इस हालिक को द्वेष क्यों हुआ? ऐसा बैर, कि दुर्लभ बोधिबीज अर्जन करके भी, वह उसे फेंक कर चला गया। भगवती दीक्षा को त्याग
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