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'बोल रे हालिक, क्या तेरा बहुत जी लगता है संसार में ? '
'सच ही, नहीं लगता, भदन्त ! आप ठीक समय पर आये । मेरा मन बहुत उद्वेलित है । कहीं लगता नहीं । जी करता है, कहीं और ही चला जाऊँ। किसी अन्य ही देशान्तर में, जहाँ ऐसा उचाट और अवसाद न हो । जहाँ मन लग जाये ।'
'ओ रे आ, मेरा अनुसरण कर । मैं वहीं जा रहा हूँ, जहाँ जाने को तू बेचैन है !
'क्या वह देश बहुत दूर है, स्वामिन् ?'
'दूर से भी दूर, पास से भी पास। पूछ मत, पीछे चला चल चुपचाप ।'
हालिक कृषिकार भगवद्पाद गौतम के पीछे चल पड़ा। बिना किसी आदेश-उपदेश के अपने आप से ही वह, क्षमाश्रमण गौतम की चर्या का अनुसरण करने लगा। ऐसे ही चुपचाप काल निर्गमन होता गया । एक दिन अचानक वह नग्न हो कर गौतम के सामने आ खड़ा हुआ । श्रीगुरु गौतम ने उसे पछी - कमण्डलु प्रदान किये । नवकार मंत्र की दीक्षा दी। सब मौन-मौन ही सम्पन्न हो गया । हालिक चुपचाप पूर्ववत् ही अपने श्रीगुरु का अनुगमन करने लगा। अचानक एक स्थल पर रुक कर हालिक ने पूछा :
'हम कहाँ जा रहे हैं, देव ?'
'तेरे मन के देश, जहाँ कोई तेरी प्रतीक्षा में है । वह तुझे माटी में नहीं, मनुष्य में बीज बोना सिखा देगा ! "
हालिक विचार में पड़ गया। कुछ अचकचाया । बोला :
'आप ही क्या कम हैं, स्वामिन । आप से बड़ा तो मुझे कोई त्रिलोकी में दीखता नहीं ।'
'एक है त्रिलोकीनाथ, जो छोटे से भी छोटा है, बड़े से भी बड़ा है । वह छोटे-बड़े से ऊपर महाशाल पुरुष है । तीन लोक, तीन काल उसकी हथेली पर हैं। ''उन्होंने तुझे याद किया है ।'
हालिक स्तब्ध रह गया । बोला :
'मुझ जैसे एक क्षुद्र कृषक को त्रिलोकीनाथ ने याद किया है ? मुझे डर लग रहा है, भगवन् । मुझे किसी षड्यंत्र की गन्ध आ रही है । '
'षड्यंत्र के बिना, क्या इतना बड़ा जगत् चलेगा रे ? फिर वे तो तीनों लोक के राजा हैं। उनकी गति वही जानें । हम तुम क्या समझेंगे रे । तू चल कर ही देख न !'
'भगवन्, वे आपके कौन होते हैं ? '
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