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मनुष्य का हलकार
___ याद आ रही है, बहुत पहले की बात। प्रभु तब छमस्थ अवस्था में तप के अग्नि-वनों से गुज़र रहे थे। और उस दिन वे गंगा पार करने के लिये भला नाव पर क्यों चढ़े होंगे? वे चाहते तो उस जल-राशि पर चल भी सकते थे। लेकिन नहीं, उनकी राह अतल जल-लोकों के भीतर से ही गयी थी। अहेतुक हो कर भी, कितनी सहैतुक थी प्रभु की वह नौका-यात्रा! जल लोक के राजा सुदंष्ट्र नागकुमार की प्रतिशोध के कषाय से पीड़ित आत्मा ने उन्हें पुकारा था। तो सुदंष्ट्र की उस वासना को तृप्त किये बिना, प्रभु कैसे आगे बढ़ सकते थे?...
सो वह सुदंष्ट्र जल की उस अन्ध कारा से छूट कर, एक गाँव में हालिक कृषिवल हो कर जन्मा था। उसे जोतने को मानव-क्षेत्र मिला था, जहाँ से मुक्ति का चरम पुरुषार्थ सम्भव होता है। एक दिन वह हालिक अपने खेत में हल जोत रहा था, तभी श्रीभगवान् उस क्षेत्र में विहार कर रहे थे। उन्होंने आदेश दिया आर्य गौतम को :
'जाओ, देखो तो गौतम, पास ही एक ग्राम के खेत में कोई कृषक हल चला कर पृथ्वी को जोत रहा है !' ''क्या वह कोई आत्मार्थी है, भगवन् ?' 'जाओ, और स्वयम् जानो, वह कौन है !'
आर्य गौतम ने उस ग्रामाङ्गन में विहरते हुए, खेत में हल जोतते उस कृषक को चीन्ह लिया। उन्हें श्रीकृपा का आवेश अनुभव हुआ। उनके भीतर कितना-कुछ स्फुरायमान होने लगा। कृषक को सहसा ही सम्बोधन सुनाई पड़ा :
'ओरे हालिक कृषिकार, कब तक माटी में खेती करेगा रे? मैं तुझे मनुष्य में खेती करना सिखा दंगा। आ, मेरे पीछे आ !'
हालिक दौड़ा आया। आर्य गौतम की भव्य शान्त, दिव्य मूर्ति देख कर वह अवाक रह गया। ऐसा लोकोत्तर तेज और सौन्दर्य तो उसने मनुष्य में पहले कभी देखा नहीं था। वह मंत्र-मुग्ध ताकता ही रह गया। गौतम बोले :
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