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________________ २३९ स्वयम् ही उसकी डाढ़ों में कूद कर उसका आहार हो गये ! उसके उदर में प्रवेश कर, उसके मूलाधार में उतर गये। हालिक को लगा कि जाने कौन उसके भीतर के एक-एक रक्ताणु, उसके तन-मन के एक-एक परमाणु को सहला रहा है। प्यार कर रहा है। हालिक जब उस प्रीत-समाधि से बाहर आया, तो उसने पाया कि स्वयम् प्रभु हालिक मुनि पर पुष्प वर्षा कर रहे हैं। _ 'अरे हालिक, तू तो महावीर के श्वेत रक्त में हल चला रहा है। उसकी नसों में से दूध चू आया है। ओ मेरे हलकार, मनुष्य के जाने कितने ही क्षेत्र, तेरे हल-चालन की प्रतीक्षा में है। तेरा बोधि-बीज अनजाने ही, जाने कितनी ही आत्माओं में कल्पवृक्ष बन कर फलेगा। तेरी जय हो हालिक कृषिकार!' ___और हालिक को अनुभव हुआ, कि उसके रक्त में यह कैसे अवगाढ़ मधुर गोरस का संचार हो रहा है। यह पृथ्वी स्वयम् ही हो गयी है उसकी कामधेनु ! ... Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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