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________________ २३१ मार डालेगा। तो क्यों न हम सबी मिल कर इसी को मार डालें। इस पापी को जीवित रख कर, हम कब तक अपनी आत्माओं का घात करता रहेंगी? "तभी सोनी फिर आक्रमणकारी की तरह सामने झपटता आया। तो उन सारी स्त्रियों ने निःशंक निर्भय हो कर, एक साथ अपने चार-सानिन्यानवे दर्पण एक चक्र की तरह अपने उस पति नामधारी दानव पर फर्क । उससे तत्काल सोनी परम धाम पहुँच गया। ___'लेकिन वे तो स्त्रियाँ थीं न! माँ की जाति थीं। सो वे रो कर, विलाप कर, पश्चात्ताप करने लगीं। उन्होंने उस घर को ही चितावत् सुलगा दिया। और वहीं रह कर वे भी जल कर भस्म हो गईं। वे सतवंतियाँ अपने ही सत् की सती हो गई। पश्चात्ताप योग से, अनजाने ही उनके कर्मों की अकाम निर्जरा हुई। अयाचित ही उनके कई पुरातन दुष्कर्म झड़ गये। सो वे चारसौ-निन्यानवे स्त्रियाँ किसी एक ही प्रदेश में पुरुष हो कर जन्मी। संयोगात् वे एकत्र हो गई। जाने कौन एक दमित द्रोह और दर्द उनमें प्रतिहिंसा बन कराह रहा था। ...हमको सब ने लूटा, अब हम सब को लूटेंगे। हम चोरी करेंगे, सारे जगत को चरा लेंगे। इस कारागार को तोड़ेंगे। सो वे सब एकमत हुए, और अरण्य में अपना एक गप्त किला बाँध कर चोरी का व्यवसाय करने लगे। 'उधर वह सोनी मर कर तिर्यच गति में पश हो कर जन्मा। उसके द्वारा मारी गयी, उसकी वह एक पत्नी भी तिर्यंच में पशु हो कर जन्मी। फिर एक ब्राह्मण के कुल में पुत्र हो कर पैदा हुई। वह पुत्र जब पाँच वर्ष का हुआ, तब वह सोनी भी उसी ब्राह्मण के घर, उसकी बहन बन कर उत्पन्न हुआ। माता-पिता ने अपने पाँच वर्ष के पुत्र को अपनी पुत्री के लालन-पालन का भार सौंप दिया। वह बहुत प्यार से अपनी बहन का लालन करता। लड़की बड़ी तो हो चली, पर जाने किस कारण चाहे जब रोया ही करती। भाई के किसी भी पुचकार-जतन से वह चुप न होती। आठ वर्ष की हो गयी, भाई तेरह का हो गया। लड़की सुबकती ही रहती। द्विज-पुत्र एक बार उसे चुप करने को बहत सहला-पुचकार रहा था। अचानक उसका हाथ लड़की के गुह्यांग को छू गया। और वह तुरन्त रोती बन्द हो गई। उसका चिर काल का रुदन थम गया। लड़का चकित था, यह कैसी अद्भुत् माया है ! उसे कुंजी मिल गयी। फिर लड़की जब भी रोती, लड़का उसका गुह्यांग हलके से छू देता। वह चुप हो जाती। ‘एक बार उस लड़के के माता-पिता ने उसे उक्त क्रिया करते देख लिया। उन्होंने उसे कोई पापात्मा पिशाच समझ, मार-पीट कर घर से निकाल दिया। वह किसी पर्वत की गुफ़ा में जा कर रहने लगा। फल-मूल खाता, वह अरण्य में ही अनिर्देश्य भटकता फिरता। योगात् एक दिन वह Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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