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________________ २३० अनुक्रम से उसने पाँच सौ स्त्रियों को ब्याहा था। हर स्त्री को उसने सर्व अंगों के आभूषण बनवा दिए थे। और जब जिस स्त्री की बारी आती, वह स्नान-अंगराग कर, सारे ही आभूषण पहनती। और रत्न-कांचन कीता, वह भोग्या दासी उसके साथ क्रीड़ा करने चली जाती। अन्य स्त्रियाँ उस दिन कोई शृंगार नहीं कर सकती थीं, यदि करतीं तो सुवर्णकार उनका बहुत तिरस्कार और ताड़न करता। 'अपनी स्त्रियों के स्त्रीत्व पर उसको अत्यन्त ईर्ष्या थी। यह सारा नारीत्व मात्र, मानो एकमेव उसका भोग्य था। किसी और को ये न मोह लें, इसी अरक्षा और भय में वह जीता था। गृहद्वार छोड़ कर कभी कहीं जाता नहीं। दिन-रात वह अपने अन्तःपुर पर पहरा देता रहता था। सुवर्ण तो पर्याप्त था, सो करने को और कुछ था नहीं। वह सर्वकाल इसी एक स्त्रैण वृत्ति में रमा रहता था। इसी कारण वह अपने स्वजनों को भी कभी अपने घर जिमाता नहीं। और इसी अविश्वास के चलते वह भी औरों के घर भोजन पर न जाता । 'एक बार सोनी का एक प्रिय मित्र, सोनी की इच्छा न रहते भी, उसे अत्यन्त आग्रह से अपने घर भोजन पर ले गया। बरसों बाद मुक्ति की साँस ले कर उसकी पाँच-सौ स्त्रियाँ आपे में आ गईं। मुदित हो कर वे सब एकत्र हुईं। अपनी व्यथा परस्पर को कही। ... धिक्कार है हमारे इस घर को, हमारे इस यौवन को, हमारे इस जीवन को। कि हम इस कारागृह में बन्दिनी हो कर जी रही हैं। हमारा पति यमदूत की तरह कभी अपना द्वार छोड़ता नहीं । सुयोग है कि आज वह कहीं चला गया है। तो आओ, आज हम थोड़ा समय स्वेच्छा से बितायें, मनचाहा वर्तन करें । अपने जीवन को क्षण भर जी चाहा जियें । आओ, इस फाँसी से मुक्त हो कर विहरें। ... 'ऐसा विचार कर सब स्त्रियों ने स्नान किया, सुगन्ध-फुलैल, अंगराग, उत्तम पुष्पमालादि धारण किये। सुशोभित वेश-परिधान किया। फिर वे सब अपने-अपने हाथों में अपना दर्पण ले कर उसमें अपना रूप निहारने लगीं। ठीक तभी अचानक वह सोनी लौट आया। यह दृश्य देख कर वह ईर्ष्या और क्रोध से पागल हो गया। उसने उनमें से एक स्त्री को पकड़ कर ऐसा मारा, कि वह हाथी के पैर तले कुचली गई कमलिनी की तरह मृत्यु को प्राप्त हो गई। ___'एक भयंकर सन्नाटे में बाक़ी स्त्रियाँ पत्तों-सी थरथराने लगीं। सोनी तत्काल ही अन्यत्र चला गया। “सोच में पड़ गया कि वह क्या करे? क्यों न सब को मार डाले? तो फिर किसे भोगेगा...? उधर उन स्त्रियों ने परस्पर काना-फूसी की : अरे यह कृतान्त तो हम सभी को इसी तरह बेमौत Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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