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फाँसी के उस पार
'यहाँ सर्वज्ञ बिराजमान हैं !'
ऐसा वचन लोगों से सुन कर कोई एक धनुष्यधारी पुरुष प्रभु के पास आया। अपराध बोध से वह नम्रीभूत था। सो प्रभु के बहुत निकट ही खड़ा दिखाई पड़ा। प्रभु की उसे अधिक ज़रूरत थी, सो वह दूर न रक्खा जा सका।
उसने मन ही मन प्रभु से अपना संशय पूछा। प्रभु बोले :
'आप्त अर्हन्त की इस सभा में, पर कोई नहीं, केवल स्व है यहाँ । कैवल्य की इस ज्योति-लेखा में कुछ भी छुपा नहीं, सब उजागर है। स्व के इस राज्य में पर का भय और संकोच कैसा? तू अपना संशय वचन द्वारा व्यक्त कर, आत्मन् । तो अन्य भव्य प्राणी भी प्रतिबोध पा सकेंगे।'
- फिर भी लज्जावश वह धनुष्यधारी स्पष्ट न बोल सका। सो उसने संकेत भाषा में पूछाः
'हे स्वामी, यासा, सासा?' 'एवमेव, कल्याणवरेषु !'
एक रहस्य वातावरण में छा गया। हजारों आँखें प्रश्नायित दीखीं। तब आर्य गौतम ने पूछाः
'यासा, सासा ? इस वचन का अर्थ कहें, नाथ।' गन्धकुटी की सीढ़ियाँ स्पन्दित हुई। और उनमें से सुनाई पड़ाः
'अनादि सन्दर्भ में से यह प्रश्न उठा है, वहीं है उत्तर भी आ रहा है। जो आज भाई-बहन हैं, वे कभी पति-पत्नी भी थे, और आगे कुछ भी हो सकते हैं। बात उतनी ही नहीं, जितनी सामने है। वह पीछे बहुत दूर से, अगोचर में से चली आ रही है, और आगे अगोचर तक है उसका व्याप। कथा के उस पूर्व छोर को सुनो, जानो भव्यजनो!
'इसी भरत क्षेत्र की चम्पा नगरी में पूर्वे एक स्त्री-लम्पट सुवर्णकार था। वह पृथ्वी पर फिरता था, और जहाँ भी कोई रूपवती कन्या उसका मन मोह लेती, उसे वह पाँच सौ सुवर्ण-मुद्राएँ अर्पित कर ब्याह लाता। इस प्रकार
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