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श्रीमाँ ने सात्यकी को अपनी भुवनेश्वरी चितवन से पुनर्दीक्षित किया, और वह शान्त भाव से चला गया।
तभी सुज्येष्ठा ने मानो धरती में गड़ते-से पूछा : 'मेरे लिये क्या आदेश है, माँ ?'
'चेलना के संरक्षण में तुम्हारी प्रसूति होगी। और यथाकाल अतिथि आत्मा का स्वागत होगा !' ___ 'पाप के मूल का संरक्षण कैसा, माँ ? संसार बीज का पोषण कैसा, माँ ?'
'आत्मा न पाप है, न संसार है। वह बस एक शुद्धात्मा है । शेष सब अनिवार्य पर्याय-क्रम है । आया और गया। अनागत जन्मा आत्मा का स्वागत ही हो सकता है।'
'अवैध जातक का अस्तित्व कहाँ, माँ ?'
'कैवल्य में वैध-अवैध कुछ नहीं। वहाँ केवल उत्पाद, व्यय और ध्रुव है। आया, बीता, और शेष में केवल त्रिकाली ध्रुव है । वही होगा तुम्हारा जातक ।'
अचानक श्री भगवान् का स्वर सुनायी पड़ा। वे हठात् अधरासीन विराजित दीखे, भगवती के दक्षिणांग में ! वीतराग जिनेश्वर ने न्याय-विधान किया:
'अपनी नियति का स्वामी वह स्वयम् है, कल्याणी । तुम अपने को उसकी जनेत्री, धात्री मानने वाली कौन ? उसके साथ अपने को तदाकार करने वाली तुम कौन ?'
एक स्तब्धता गहराती चली गयी। फिर सहसा ही सुनायी पड़ा :
'यह आमातृ-पितृजात अवैध पुत्र, एक अज्ञात सूर्य की तरह किसी दिन कलिकाल में महावीर के धर्म-चक्र का संवाहक होगा !'
देवांगनाओं ने फूल बरसाये । देव, दनुज, मनुज की जयकारों में पाप का अस्तित्व ही तिरोहित हो गया। ___ मनुष्य को अपने हर मोड़ पर, मुक्ति की नई और मनचीती राहें खुलती दिखाई पड़ी।
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