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बहन सुज्येष्ठा को समाती ही चली गयी। सुज्येष्ठा का रुदन चुक गया, पर चेलना दीदी ने कुछ न पूछा। ज्येष्ठा बहुत आश्वस्त हो आयी। फिर भी रहा न गया तो पूछा :
'दीदी, मैं इतनी गिर गयी, कि तुमने मुझे कुछ पूछने योग्य भी न समझा ?' और सुज्येष्ठा रो आयी।
'क्रमबद्ध पर्याय के इस खेल में वह पर्याय अनिवार्य थी, ज्येष्ठा । आई और चली गयी। उसकी पूछ-ताछ क्या? और अपनी ज्येष्ठा को क्या मैं जानती नहीं। गिरना उसके अभिधान में ही नहीं है। तुम दोनों का राग परमाणु से भी अधिक सूक्ष्म था। पहले ही दिन से तुम दोनों देह-भाव में नहीं थे। और आत्म-भाव भी एक अन्तिम अवगाढ़ अभिव्यक्ति के बिना, आप्त-काम नहीं हो सकता।'
'तुम कैसी तो बोल रही हो, दीदी ! वीतराग महावीर की मर्यादा हो तुम। और तुमने अमर्यादा को..'
'अमर्याद है महावीर, ज्येष्ठा। उसमें हर क्षण नव-नव्य मर्यादा उदय हो रही है। प्रतिक्षण सदोदित है महावीर। त्रिकाली ध्रुव। उसमें उत्थान-पतन नहीं । तुम्हें उस ध्रुव पर उठा लिया है प्रभु ने। परभाव से स्वभाव में प्रतियात्रा करो, सुज्येष्ठा । प्रभु तुम्हें पुकार रहे हैं।'
... और एक सबेरे सुज्येष्ठा नतमाथ भगवती चन्दन बाला के सम्मुख प्रस्तुत हुई। उसके मुंदी आँखों वाले विनत आनन पर आँसू की धाराएँ बंधी थीं। ... 'अनिवार्य भोग का शोक कैसा, सुज्येष्ठा ! तू उच्चारोही भव्यात्मा है। तू मुक्ति-कामिनी है, कल्याणी । तुम दोनों की वासना भी मुक्ति के बाहर नहीं थी। तुमने परस्पर को मुक्त किया । तुम दोनों परायेपन से अपनेपन में लौटने को विवश हुए। तो अब किये का प्रेक्षण करो, आलोचन करो। प्रतिक्रमण करो।'
क्षणैक चप रह कर श्रीमाँ ने सुज्येष्ठा के पीछे की ओर सम्बोधन किया : 'काया में नहीं, कामेश्वरी आत्मा में रमण करो, सात्यकी !' ..
श्रीमाँ ने देख लिया था। सात्यकी भी ठीक सुज्येष्ठा के पीछे ही कब से आ बैठा था। वह प्रबुद्ध हर्षित हो बोला : 'माँ, क्षणिक के पर-राज्य में नहीं, तुम्हारे अमृत के स्व-राज्य में मेरी यह अछोर वासना निर्बन्धन और मुक्त हो जाये।
'वर्जित नहीं, विवर्जित विचरो, तो ग्रंथिछेद हो जायेगा।'
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