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________________ २२६ श्री भगवान् ने सात्यकी पर ही छोड़ दिया, कि वह चाहे तो नग्न हो जाये। लेकिन प्रभु अनुमत नहीं थे। आदेश नहीं दिया था।“सात्यकी श्रीमाँ चन्दना के आगे कातर गुहार करता हुआ शरण खोजने लगा। माँ को उस पर करुणा आ गयी। माँ की वासक्षेप वर्षा तले सात्यकी दिगम्बर हो गया। माँ को लगा, अपने बच्चे को मोहरात्रि को भी उन्हें ही तो सहना होगा। समय बीतता चला। सात्यकी ने एक बार प्रभु के ऐश्वर्य की द्वाभा में, देवी सुज्येष्ठा का पवित्र आनन देखा था। मिलते ही चारों आँखों के पलक ढलक गये थे। उसके बाद वे एक-दूसरे से बच कर ही चलते थे। मानो कि यहाँ सभी मिलन में हैं, केवल यही दो आत्माएँ बिछड़ी हुई हैं। चैतन्य की लीला यदि विचित्र है, तो राग की लीला विचित्र क्यों न होगी। कुछ बरस बीत चले। ...सात्यकी मुनि एक दिन गुफ़ा में ध्यान-मग्न बैठे थे। बाहर आँधियों के साथ ज़ोर का पानी बरस रहा था। तभी योगात् आर्या सुज्येष्ठा आहारचर्या से लौटते हुए बरसात में भीग गईं। वे अपनी शाटिका सुखाने के लिये उसी अन्धी कन्दरा में अकस्मात् चली आईं, जहाँ सात्यकी ध्यानावस्थित थे। बेभान सुज्येष्ठा ने अपने को एकाकी जान, शाटिका उतार दी, और उसे निचोड़ने लगी। अचानक बिजली चमकी। सात्यकी के सामने मानो उसकी आत्मा ही परमा सुन्दरी के रूप में नग्न खड़ी थी। तमाम सृष्टि को दहलाती हुई बिजलियाँ कड़कने लगीं। तूफ़ान गरजने लगे। मेघों के डमरू गड़गड़ाने लगे। वर्षा के उस विप्लव में सब डूबता जान पड़ा। और उस अन्धी गुफा में एक नग्न पुरुष और एक नग्न नारी आमनेसामने खड़े थे। प्रकृति और पुरुष की तात्विक भूमिका । उस युगल का देहभान जाता रहा । देह, देह में लीन हो गई: आत्म, आत्म में रम्माण हो गया। .."इन्द्रियों के सीमान्त आ गये। वे दोनों आगे न बढ़ सके। वे फिर भी बिछुड़े ही रह गये? हाय, इतनी मुक्त अवगाढ़ता के बाद भी ऐसा वियोग और विषाद ? दीना-पावना चुक गया। वे एक-दूसरे की ओर न देख सके। और वे अपनी-अपनी राह चले गये। राजगृही के राजमहालय में अबेला ही चेलना के द्वार पर दस्तक हई। देवी ने द्वार खोला। सम्राट नहीं, सुज्येष्ठा थी। उजाड़, उदास, वृन्त-च्युत कल्प-लता। प्रभात का शीर्ण पाण्डुर चन्द्रमा।. सुज्येष्ठा चेलना के अंक में लिपट कर बेहद रोने-बिसूरने लगी। चेलना को अपनी सहज-बोधि से पता चल गया। अपने अथाह मौन में वह अपनी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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