SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 235
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ .२२५ 'मैं कहाँ ठहरूँ, कहाँ लौटें ? मुझे अपने में आयतन दो माँ, आधार दो माँ ! 'जिसमें तुझे सुख हो, वही कर, कल्याणी । स्वधर्म के मार्ग में कोई प्रतिबन्ध नहीं ।' सुज्येष्ठा स्वयम् आप से ही भगवती दीक्षा लेकर, श्री भगवान के समवसरण में उपस्थित हो गई । भगवती चन्दनबाला ने उसके प्रणत मस्तक पर वासक्षेप की वर्षा की। प्रभु उसके मर्म में रहस्य के एक मुद्रित मुकुल-से भर आये, और मुस्करा दिये । योगायोग । तभी एक सन्देशवाहक अश्वारोही वैशाली से गान्धार आया । उसके द्वारा उदन्त फैला : 'देवी सुज्येष्ठा श्री भगवान् की परिव्राजिका हो गईं ! ' ... सुन कर सात्यकी की आँखों में दुनिया बुझ गयी । आरब्य सागर की अफाट और अकाट्य जलराशि में फाट पड़ गई । हिन्दूकुश के दर्रे सनाका खा गये। सात्यकी को लगा, कि संसार के किनारे वह अकेला छूट गया है । अब जगत् में उसके पाने को बचा ही क्या है ? सामने की राह रुँध गई है। दिशा नहीं, क्षितिज नहीं । कहाँ ठहरे सात्यकी । क्या करे ? कहाँ जाये ? और उसकी आँखों में अर्हन्त महावीर के समवसरण की ऐश्वर्य प्रभा झलक उठी । प्रभु के प्रभा-मण्डल में ही तुम्हें खड़ी देखूंगा, सुज्येष्ठा । तुम्हारा वह भागवत तापसी रूप ! निर्बन्धन में ही हम मिल सकते हैं । ... और एक सबेरे सात्यकी श्रीभगवान के चरण-प्रान्त में उपस्थित दीखा । 'जगत् में पाने को कुछ न रहा, भगवन् । प्रभु से बाहर अब कहीं जी नहीं लगता । मुझे अपना ही अंग बना लें ।' 'सच ही तू यहाँ महावीर को पाने आया है, या किसी और को ?' 'प्रभु के भीतर ही मेरी चाह पूरी हो । अन्यत्र नहीं ! ' 'अन्य और अन्यत्र अभी शेष है । तू पर-भाव में है, सात्यकी । तू प्रतीक्षा कर, अपने भोग्य का तू सामना कर । तू पलायन कर रहा है । मुक्तिकामी पलायन नहीं करता, सामना करता है ।' 'पलायन भी तो प्रभु के भीतर ही कर रहा हूँ । मुझे अपने जैसा ही नग्न और निग्रंथ बना लें, स्वामी ।' 'अन्तिम ग्रंथि का सामना कर, सात्यकी । वही आत्मवेध है ।' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy