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'मैं कहाँ ठहरूँ, कहाँ लौटें ? मुझे अपने में आयतन दो माँ, आधार दो
माँ !
'जिसमें तुझे सुख हो, वही कर, कल्याणी । स्वधर्म के मार्ग में कोई प्रतिबन्ध नहीं ।'
सुज्येष्ठा स्वयम् आप से ही भगवती दीक्षा लेकर, श्री भगवान के समवसरण में उपस्थित हो गई । भगवती चन्दनबाला ने उसके प्रणत मस्तक पर वासक्षेप की वर्षा की। प्रभु उसके मर्म में रहस्य के एक मुद्रित मुकुल-से भर आये, और मुस्करा दिये ।
योगायोग । तभी एक सन्देशवाहक अश्वारोही वैशाली से गान्धार आया । उसके द्वारा उदन्त फैला : 'देवी सुज्येष्ठा श्री भगवान् की परिव्राजिका हो गईं ! '
... सुन कर सात्यकी की आँखों में दुनिया बुझ गयी । आरब्य सागर की अफाट और अकाट्य जलराशि में फाट पड़ गई । हिन्दूकुश के दर्रे सनाका खा गये। सात्यकी को लगा, कि संसार के किनारे वह अकेला छूट गया है । अब जगत् में उसके पाने को बचा ही क्या है ?
सामने की राह रुँध गई है। दिशा नहीं, क्षितिज नहीं । कहाँ ठहरे सात्यकी । क्या करे ? कहाँ जाये ? और उसकी आँखों में अर्हन्त महावीर के समवसरण की ऐश्वर्य प्रभा झलक उठी । प्रभु के प्रभा-मण्डल में ही तुम्हें खड़ी देखूंगा, सुज्येष्ठा । तुम्हारा वह भागवत तापसी रूप ! निर्बन्धन में ही हम मिल सकते हैं ।
... और एक सबेरे सात्यकी श्रीभगवान के चरण-प्रान्त में उपस्थित दीखा ।
'जगत् में पाने को कुछ न रहा, भगवन् । प्रभु से बाहर अब कहीं जी नहीं लगता । मुझे अपना ही अंग बना लें ।'
'सच ही तू यहाँ महावीर को पाने आया है, या किसी और को ?'
'प्रभु के भीतर ही मेरी चाह पूरी हो । अन्यत्र नहीं ! '
'अन्य और अन्यत्र अभी शेष है । तू पर-भाव में है, सात्यकी । तू प्रतीक्षा कर, अपने भोग्य का तू सामना कर । तू पलायन कर रहा है । मुक्तिकामी पलायन नहीं करता, सामना करता है ।'
'पलायन भी तो प्रभु के भीतर ही कर रहा हूँ । मुझे अपने जैसा ही नग्न और निग्रंथ बना लें, स्वामी ।'
'अन्तिम ग्रंथि का सामना कर, सात्यकी । वही आत्मवेध है ।'
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