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उपवन' में भगवान् चन्द्रप्रभ की पूजा के लिये जाती। पवित्र श्वेत वसन, खुले केश। लिलार पर रक्त चन्दन का टीका। हाथ की चाँदी की थाली में गन्धराज, बेला, स्थल-कमल के फूल । अभिषेक-जल की सुवर्ण झारी । केशर की कटोरी।
"एक दिन बड़ी भोर ही सात्यकी चन्द्रप्रभ देव के दर्शन कर लौट रहा था। कि अचानक ही देवालय की सीढ़ियों पर पूजा-द्रव्य लिये सन्मुख आती दीखी सुज्येष्ठा। दोनों का परस्पर से बचाव न हो सका। दृष्टियाँ मिलीं। विनय से नत हो कर सुज्येष्ठा ने अतिथि का अभिवादन किया। सात्यकी ने भी हाथ जोड़ कर सर झुका दिया। ___'जरा रुकेंगे, आर्य सात्यकी ? पूजार्घ्य का पुष्प-प्रसाद लेते जायें।'
कह कर झटपट सुज्येष्ठा चैत्यालय में चली गयी। बहुत एकाग्र मन से उसने चन्द्रप्रभ प्रभु का पूजन-अर्चन, धूप-दीप किया। अन्तरतम से प्रार्थना की : 'मेरी राह प्रकाशित करें, प्रभु । "और ये अतिथि देव जीवन में अपना मनोकाम्य लाभ करें, और कृतार्थ हों।' “लौट कर सुज्येष्ठा ने, दोनों हाथों से सात्यकी को पुष्प-प्रसाद दिया। उनके भाल पर केशर का टीका लगा दिया। फिर उन पर अक्षत-फूल बरसा दिये । "और एक-दूसरे को बिना देखे ही दोनों अपनी-अपनी राह चले गये।
चन्द्रप्रभ उपवन के उत्तरी प्रत्यन्त भाग में एक पीले कमलों का सरोवर था। वहाँ प्रायः सुज्येष्ठा कभी-कभी साँझ बेला में एकान्त विहार करती थी। सात्यकी को इसका कोई आभास भी नहीं था।
...एक दिन साँझ की द्वाभा बेला में सात्यकी भी उधर निकल आया। वह निर्जन सरोवर की एक सीढ़ी पर बैठा, निवान्त भाव से उन मुद्रित होते कमलों की भीनी लयमान गन्ध में अपनी मनोवेदना का पता खोज रहा था। "कि तभी अचानक सुज्येष्ठा वहाँ आयी। उसे देखते ही सात्यकी उठ खड़ा हुआ। ..ओ, क्षमा करें, मुझे पता न था।' कह कर वह चल पड़ा। सुज्येष्ठा के मुंह से बरबस ही निकला : 'ओ“आप! मैंने आपकी तन्मयता में आघात पहुँचाया।' सात्यकी रुका और उसने पीठ से ही सुना : 'मुझ से भूल हो गयी क्या? आप इस तरह चले जायेंगे?...' फिर रुक कर वह बोली : 'यदि आप को नाराजी है, तो मैं ही चली जाती हूँ।' कह कर सुज्येष्ठा दूसरी वीथी से उल्टी दिशा में चल पड़ी। ___ 'नहीं, देवी, आप से कौन नाराज़ हो सकता है ? फिर मैं कैसे? दोष तो मेरा था। मालूम न था कि यह आप का एकान्त विहार-स्थल है। नहीं तो मैं यहाँ क्यों आता, भला। जाने से पहले मुझे क्षमा नहीं कर जायेंगी?'
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